Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५ है और वह मिश्र, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिबादर इन तीन गुणस्थानों में जानना चाहिये । क्योंकि इन तीन गुणस्थानों में आयु का बंध नहीं होता है तथा शेष मिथ्यादृष्टि से लेकर मिश्र गुणस्थान वर्जित अप्रमत्त संयत तक के गुणस्थान वालों के आयु के बंध काल में आठ का और शेष काल में सात का बंधस्थान जानना चाहिये।
गुणस्थानापेक्षा बंधस्थानों के क्रमोल्लेख करने का यह आशय है कि उस-उस गुणस्थानवी जीव उस बंधस्थान के स्वामी हैं।
मूल कर्मों के इन चार बंधस्थानों में तीन भूयस्कार, तीन अल्पतर और चार अवस्थित बंधप्रकार होते हैं किन्तु अवक्तव्य बंधप्रकार नहीं होता है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
१ गो. कर्मकांड में भी इसी प्रकार से चार बंधस्थानों के स्वामी का निर्देश किया है
छसु सगविहमट्ठविहं कम्मं बंधंति तिसुयसत्तविहं । छविहमेकट्ठाणे तिसु एक्कमबंधगो एक्को ॥४५२॥
मिश्रगुणस्थान के बिना अप्रमत्त पर्यन्त छह गुणस्थानों में जीव आयु के बिना सात प्रकार के अथवा आयु सहित आठ प्रकार के कर्म बाँधते हैं। मिश्र, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन गुणस्थानों में आयु के बिना सात प्रकार के ही कर्म बंध रूप होते हैं। सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में आयु, मोह के बिना छह प्रकार के कर्मों का बंध होता है, और उपशांतमोह आदि तीन गुणस्थानों में एक वेदनीय कर्म का ही बंध होता है और अयोगि गुणस्थान बंध रहित हैं, उसमें किसी भी कर्म प्रकृति का बंध नहीं
होता है। २ दिगम्बर साहित्य में भी मूल प्रकृतियों के बंधस्थान और उनमें भूयस्कार
आदि बंध इसी प्रकार बतलाये हैं । देखो-गो. कर्मकांड गा. ४५३
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