Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५
रहने पर सात का उदीरक होता है, यह दूसरा भूयस्कार है । तत्पश्चात् परभव में आठ का उदीरक हो, यह तीसरा भूयस्कार है । दोप्रकृतिक स्थान के उदीरक क्षीणमोह और सयोगिकेवलि गुणस्थान है। किन्तु इन दोनों में से पतन नहीं है। इसलिए उसकी अपेक्षा भूयस्कार घटित नहीं होता है । इसी कारण उदीरणास्थानों में तीन ही भूयस्कार प्राप्त होते हैं ।
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उदीरणास्थानों में अल्पतर चार होते हैं । वे इस प्रकार समझना चाहिये कि आठ का उदीरक सात के, सात का उदीरक छह के, छह का उदीरक पाँच के और पाँच का उदीरक दो के उदीरणास्थान में जाता है । इसलिए अल्पतर चार ही सम्भव हैं । तथा
अवस्थित पांचों सम्भव हैं। क्योंकि उदीरणास्थान पाँच हैं । उनमें से तेतीस सागरोपम की आयु वाला देव या नारक अपनी आयु की शेष एक आवलिका न रहे, वहाँ तक आठ कर्म का उदीरक होता है । इसलिए आठ कर्म की उदीरणा का उत्कृष्ट काल आवलिकान्यून तेतीस सागरोपम प्रमाण है। आयु की जब एक आवलिका शेष रहे तब उस आवलिका में सात कर्म की उदीरणा होती है। जिससे सात कर्म की उदीरणा का काल अन्तर्मुहूर्त है । क्षपकश्रेणि में दसवें गुणस्थान की पर्यन्तावलिका में और ग्यारहवें गुणस्थान में मोहनीय के बिना पाँच कर्म की उदीरणा होती है । अतः पाँच की उदीरणा अन्तर्मुहूर्त मात्र होती है तथा सयोगिकेवलिगुणस्थान का देशोन पूर्वकोटि काल होने से एवं वहाँ दो कर्म की उदीरणा होने से दो की उदीरणा का काल देशोन पूर्वकोटि है । इसलिए उदीरणास्थान पाँच होने से अवस्थित भी पांच होते हैं ।
यहाँ भी अव्यक्तव्य नहीं घटता है। क्योंकि मूलकर्म का सर्वथा अनुदीरक होकर पुनः उदीरक नहीं होता है । सर्व कर्मों के अनुदीरक अयोगिकेवलि भगवान होते हैं और वहाँ से प्रतिपात होता नहीं है, जिससे अवक्तव्य भी नहीं होता है ।.
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