Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
२६
एयाणं- इनकी, चिय-ही, भज्जा- -भजनीय, उदीरणा-- उदीरणा, उदय, नन्नासि -- और दूसरी प्रकृतियों की नहीं ।
गाथार्थ - निद्रापंचक, मिथ्यात्वमोहनीय और पुरुषवेद सहित उदयवती संज्ञा वाली चौंतीस इस तरह इकतालीस प्रकृतियों का उदय होने पर भी उदीरणा भजनीय जानना चाहिये । इनके सिवाय अन्य प्रकृतियों का जहां तक उदय हो वहीं तक उदीरणा होती है ।
पंचसंग्रह : ५
विशेषार्थ - गाथा में भजनीय उदीरणा वाली प्रकृतियों का नाम निर्देश किया है । भजनीय उदीरणा का यह आशय है कि उदीरणा के बिना भी अमुक समय तक सिर्फ उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है । ऐसी भजनीय उदीरणा वाली प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं
पांच निद्रायें तथा जिनका पूर्व में उदयवती संज्ञा के रूप में उल्लेख किया जा चुका है ऐसी ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, साता - असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, सम्यक्त्वमोहनीय, संज्वलन लोभ, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशः कीर्ति, मनुष्यगति, पचेन्द्रिय जाति, तीर्थंकर नाम, उच्च गोत्र, चार आयु, ये चौंतीस प्रकृतियां तथा मिथ्यात्वमोहनीय, और पुरुषवेद इन इकतालीस प्रकृतियों का उदय होने पर भी उदीरणा भजनीय होती है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
उदए-
पांच निद्राओं का शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद से लेकर जब तक इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण न हो, तब तक केवल उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है । शेषकाल में उदय और उदीरणा दोनों साथ ही होती हैं ।
I
१ कर्म प्रकृति उदयाधिकार गा० १, २, ३.
Jain Education International
चारों आयु का अपने भव की अंतिम आवलिका शेष रहे तब केवल उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org