Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५
सम्भव हैं ? तो इसका निर्देश तीसरी गाथा में गुणस्थान सम्बन्धी उदय और सत्ता विधि को बताने के प्रसंग में पहले किया जा चुका है, तदनुसार यहाँ घटित कर लेना चाहिये ।
अब पूर्व में गौण की गई उदीरणा विधि की प्ररूपणा करते हैं। गुणस्थानों में मूलकर्म उदीरणा विधि
जाव पमत्तो अट्ठण्हुदीरगो वेयआउवज्जाणं । सुहमो मोहेण य जा खीणो तप्परओ नामगोयाणं ॥५॥ शब्दार्थ-जाव-पर्यन्त, तक, पमत्तो-प्रमत्तसंयत, अट्ठण्डदीरगोआठ कर्म के उदीरक, वेयआउवज्जाणं-वेदनीय और आयु को छोड़कर, सुहुमो-सूक्ष्मसंपराय, मोहेण-मोहनीय के, य-और, जा-तक, खीणोक्षीणमोह, तप्परओ-और उसके बाद, नामगोयाणं-नाम और गोत्र के ।
गाथार्थ-मिथ्या दृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत पर्यन्त सभी जीव आठों कर्म के और अप्रमत्त से लेकर सूक्ष्मसंपराय तक के सभी जीव वेदनीय और आयु के बिना छह कर्म के तथा मोहनीय के बिना पांच कर्म के क्षीणमोह पर्यन्त के उदीरक होते हैं और उसके बाद के सयोगिके वलिगुणस्थानवी जीव नाम और गोत्र इन दो कर्मों के उदीरक हैं।
विशेषार्थ-गाथा में गुणस्थानों के कम से आठ मूल कर्मों का उदीरणा-स्वामित्व बतलाया है और इसका प्रारम्भ करते हुए निर्देश किया है
'जाव पमत्तो अट्ठण्हुदीरगो' अर्थात् मिथ्या दृष्टिगुणस्थान से प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त के सभी जीव आठों कर्म के उदीरक होते हैं। यानी पहले से लेकर छठे गुणस्थान तक के सभी जीवों को प्रति समय आठों कर्मों की उदीरणा होती है। किन्तु जब अपनी-अपनी आयु का भोग करते-करते एक आवलिका प्रमाण आयु शेष रहे तब आयु की
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