Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५
दृष्टि से समझना चाहिए। किन्तु क्षपकणि की अपेक्षा मोहनीय की अन्तिम आवलिका शेष रहने पर मोहनीय की उदीरणा नहीं होती है, शेष पाँच कर्मों की उदीरणा होती है। इसीलिए सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान की चरम आवलिका से लेकर क्षीणमोहगुणस्थान पर्यन्त मोहनीय, वेदनीय और आयु के बिना शेष पाँच कर्मों की उदीरणा होती है । मात्र क्षीणमोहगुणस्थान की चरम आवलिका में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय की स्थिति सत्ता में एक आवलिका ही शेष रहती है, अतः उनकी उदीरणा नहीं होती है, किन्तु नाम और गोत्र इन दो कर्मों की ही उदीरणा होती है। क्योंकि यह नियम है कि किसी भी कर्म की सत्ता में एक आवलिका शेष रहने पर ऊपर की स्थिति में से दलिकों को खींचा जा सके वैसे दलिक शेष उदीरणा नहीं होती है ।
नहीं रहने से उनकी
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क्षीणमोहगुणस्थान की चरम आवलिका से लेकर सयोगिकेवलि गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त मात्र नाम और गोत्र इन दो कर्मों की ही उदीरणा होती है - ' तप्परओ नामगोयाणं ।'
चौदहवें अयोगिकेवलिगुणस्थान में उदीरणा नहीं होती है । इसका कारण यह है कि योग होने पर उदीरणा होती है । किन्तु अयोगिकेवलिगुणस्थान में सूक्ष्म अथवा बादर योग नहीं होने से किसी भी कर्म की उदीरणा सम्भव नहीं है । जैसा कि कहा है
१ दिगम्बर कार्मग्रन्थिक आचार्यों का भी यही अभिमत है(क) घादीणं छदुमट्ठा उदीरगा रागिणो हि मोहस्स ।
तदियाऊण पमत्ता जोगंता होंति दोहं पि ॥ मिस्सुपमत्तन्ते आउस्सद्धाहुसुहुम वीणाणां । आवलिसिट्ठे कमसो सग पण दो चेवुदीरणा होंति ।।
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गो० कर्मकाण्ड, गा० ४५५, ४५६
(ख) दि० पंचसंग्रह, शतक अधिकार, गावा २२३-२४-२५-२६
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