Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३
'सत्तढुवसंते' अर्थात् उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में उदय सात कर्मों का होता है। क्योंकि इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म के सर्वथा उपशमित होने से उदय नहीं होता है किन्तु सत्ता आठों कर्मों की होती है। इसका कारण यह है कि उपशमित होते हुए भी वह सत्ता में तो विद्यमान है तथा बारहवें क्षीणमोहगुणस्थान में सात कर्म का उदय और सात कर्म की सत्ता होती है-“खीणे सत्त" । क्योंकि इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय होने से वह उदय और सत्ता दोनों में ही नहीं होता है।
इस प्रकार से आदि के बारह गुणस्थानों के उदय और सत्व का विचार करने के पश्चात् अब शेष रहे अन्तिम दो गुणस्थानों-सयोगिकेवलि और अयोगिकेवलि गुणस्थानों के उदय एवं सत्त्व का निर्देश करते हैं-'सेसेसु चत्तारि' अर्थात घाति कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने से सयोगि और अयोगिकेवलि गुणस्थानों में शेष रहे चार अघाति कर्मों का ही उदय और सत्व पाया जाता है ।1
इस प्रकार से गुणस्थानों में बंध, उदय और सत्वविधि का कथन जानना चाहिये । यद्यपि क्रम-प्राप्त उदीरणाविधि के वर्णन का प्रसंग है, लेकिन उसका विस्तार से विवेचन किया जाना सम्भव होने से
दिगम्बर कर्मग्रन्थों में भी इसी प्रकार का निर्देश किया गया हैअठ्ठदओ सुहुमोत्ति य मोहेण विणा हु संतखीणेसु ।। घादिदराण चउक्कस्सुदओकेवलि णियमा ।।।
-दि० पंचसंग्रह, शतक अधिकार, गा० २२१
-गो० कर्मकाण्ड, गा० ४५४ संतोत्ति अट्ठ सत्ता खीणे सत्ते व होति सत्ताणि । जोगिम्मि अजोगिम्मि य चत्तारि हवंति सत्ताणि ॥
-गो० कर्मकाण्ड, गा० ४५७
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