Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥२९॥
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पद्म | ही होय अभव्य को न होय, और संसारी जीवों के एकेन्द्रिय श्रादि भेद और गति काय आदि
चौदह मारगणा का स्वरूप कहा और उपशम क्षायक श्रेगी दोनों का स्वरूप कहा और संसारीजीव दुःख रूप कहे, मूढो को दुःख रूप अवस्था सुख रूप भासे है, चारों हीगति दुःख रूप हैं नारकियों को तो अांखके पलक मात्र भी मुख नहीं,मारण,ताड़न,छेदन,शूलारोपणादिक अनेक प्रकारके दुःख निरन्तरहैं, और तियञ्चोंको ताड़न,मारण,लादन,शीत उष्ण भूख प्यासादिक अनेक दुःखहैं और मनुष्यों को इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोगादिअनेक दुःखहें औरदेवोंको बड़े देवोंकी विभूति देखकर संताप उपजे है और दूसरे देवोंका मरण देख बहुत दुःख उपजेहै तथा अपनी देवांगनाओंका मरण देख वियोग उपजेहै
और जब अपना मरण निकट आवे तब अत्यन्त विलापकर झुरे हैं, इसी भांति महा दुःख कर संयुक्त चतु गतिमें जीव भ्रमण करे है, कर्मभूमिमें मनुष्य जन्म पाकर जो सुकृत (पुण्य) नहीं करे है उनके हस्तमें प्राप्त हुअा अमृत जाता रहे है, संसारमें अनेक योनियों में भ्रमण करता हुआ यह जीव अनन्त काल में कभी ही मनुष्य जन्म पावे है तब भीलादिक नीच कुलमें उपजा तो क्या हुआ और म्लेच्छ खंडों। में उपजा तो क्या हुआ और कदाचित् आर्य खंडमें उत्तम कुलमें उपजा और अंग हीन हुआ तो क्या और सुंदर रूप हुश्रा और रोग संयुक्त हुआ तो क्या और सर्व ही सामग्री योग्य भी मिली परंतु विषयाभिलाषी होकर धर्ममें अनुरागी न भया तो कुछ भी नहीं, इस लिये धर्मकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभहै, कई एक तो पराये किंकर होकर अत्यन्त दुःखसे पेट भरे हैं, कई एक संग्राममें प्रवेश के हैं संग्राम शस्त्र के पातसे भयानक है और रुधिर के कर्दम (कीचड़) से महा ग्लानि रूप है, और कई
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