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श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन हैं । इनके गुरु का नाम कीर्तिषण था । हरिवंशपुराण के ६६ वें सर्ग में भगवान महावीर से लेकर लोहाचार्य पर्यन्त आचार्यों की परम्परा अंकित है । वीर निर्वाण के ६८३ वर्ष के अनन्तर गुरु कीर्तिषण की अविच्छिन्न परम्परा इसी ग्रन्थ में दी गई है जिसमें गुरु परम्परा में अमितसेन को पुन्नाटगण का अग्रणी और शतवर्षजीवी बतलाया है । पुन्नाट कर्नाटक का प्राचीन नाम है । आचार्य जिनसेन ने ग्रन्थ-रचना का समय स्वयं शक सं०७०५ (सन् ७८३ ई०) निर्दिष्ट किया
नवम शताब्दी ४. जिनदत्तचरित' (श्री गुण भद्र)
इस काव्य का नाम जिनदत्तकथासमुच्चय भी है । इस चरितकाव्य में अंग देशस्थ वसन्तपुर नगर के निवासी सेठ जीवदेव के पुत्र जिनदत्त का आख्यान निबद्ध है, इसमें ९ सर्ग हैं अनुष्टुप् छन्द में निबद्ध होते हुए भी रचना अत्यन्त सरस एवं भाव-गरिमा से सम्पन्न है । ५. उत्तरपुराण (श्री गुण भद्र) ... इस पुराण काव्य में अजितनाथ तीर्थङ्कर से लेकर महावीर पर्यन्त २३ तीर्थंकरों, ११ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ बलभद्र, प्रतिनारायण और जीवन्धर स्वामी आदि कुछ विशिष्ट पुरुषों के चरित अंकित किये गये हैं । कथावस्तु पर्याप्त विस्तृत है। रचयिता : रचनाकाल
इन दोनों (जिनदत्त चरित तथा उत्तरपुराण) के रचयिता श्री गुणभद्र हैं । गुणभद्र आचार्य जिनसेन के शिष्य थे । दशरथ गुणभद्र के शिष्य थे ।' डा० गुलाबचन्द्र चौधरी ने जिनदत्त चरित को आचार्य जिनसेन के शिष्य गुणभद्र की रचना न मानकर किसी पश्चात्कालीन भट्टारक गुणभद्र की रचना माना है । पर वस्तुतः यह जिनसेन के शिष्य गुणभद्र की ही रचना जान पड़ती है।
आचार्य गुणभद्र ने उत्तरपुराण की रचना शक सं० ८२० (सन् ८९८ ई०) में की थी। दशम शताब्दी के एक शिलालेख में गुणभद्र का उल्लेख किया गया है। अतः इनका काल ई० सन् की ९वीं शताब्दी का अन्त मानना चाहिए ।
दशम शताब्दी ६. चन्द्रप्रभचरित' (वीर नन्दि)
इस चरितकाव्य में जैन धर्म के अष्टम तीर्थंकर चन्द्रप्रभ का चरित अंकित किया गया
१.तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-३, पृ०२
२.वही, पृ०३ ३.माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला बम्बई से वि० सं० १९७३ में प्रकाशित ४ जिनरत्नकोश, पृ० - १३५ ५.दृष्टव्य - उत्तरपुराण, प्रशस्ति पद्य, ९-१४
६.जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-६, पृ० ६२ ७.उत्तरपुराण, प्रशस्ति पद्य, ३५-३६
८.जैन शिलालेख संग्रह, भाग-४, लेखांक ४८६ ५.निर्णयसागर प्रेस बम्बई से १८९४ एवं १९२६ ई० में प्रकाशित