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श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन
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प्रशस्तिपद्यों का ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ा ही महत्त्व है ।
महाभारत और रामायण के कथानक हिन्दुओं की तरह इतर सम्प्रदायों को भी प्रिय रहे हैं । इन कवियों ने भी अपने सम्प्रदाय (परम्परा प्राप्त सिद्धान्त) की मान्यताओं के अनुरूप रामायण और महाभारत को आश्रय मानकर अनेक काव्यों की रचना की है। यहाँ तक कि जैन साहित्य में महापुरुषों के चरित को काव्यात्मक शैली में लिखने का श्रीगणेश ही प्राकृत भाषा में निबद्ध विमलसूरि (प्रथम शताब्दी) के “पउमचरियं" से होता है, जिसमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम का संपूर्ण जीवन परिचय वर्णित है । जैन परम्परा में राम का नाम 'पद्म' भी उल्लिखित है ।
इसकी शैली रामायण और महाभारत जैसी है। यही नहीं, जिस प्रकार जैन चरितकाव्यों का प्राकृत भाषा में प्रारम्भ श्रीराम के चरित के साथ हुआ, उसी प्रकार संस्कृत भाषा में भी । आचार्य रविषेण (सप्तम शताब्दी) का पद्मचरित संस्कृत भाषा में निबद्ध आद्य जैन चरितकाव्य है ।
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जैन कवि ईसा की सप्तम शताब्दी से लेकर निरन्तर चरितकाव्यों की रचना में संलग्न हैं। अब ऐतिहासिक दृष्टि से कालानुक्रम को ध्यान में रखते हुए चरितकाव्यों का सिंहावलोकन किया जा रहा है ।
सप्तम शताब्दी
१. पद्मचरित : ( आचार्य रविषेण)
पद्मचरित में राम-लक्ष्मण का वर्णन १२३ पर्वों में हुआ है। ये जैन परम्परा में अष्टम बलभद्र नारायण और प्रतिनारायण स्वीकृत हैं । यद्यपि यह पौराणिकता पर आधारित है किन्तु जैन संस्कृत काव्यों में यह आद्य रचना है । अतः इसका महत्त्व चरितकाव्यों के इतिहास में अविस्मरणीय है । पद्मचरित पर राजा भोज (परमार) के राज्यकाल में (१०३० ई० में) श्री चन्द्रमुनि द्वारा एक टीका लिखे जाने का उल्लेख मिलता हैं ।
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रचयिता : रचनाकाल
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“पद्मचरित” के रचयिता आचार्य रविषेण हैं । इन्होंने अपनी गुरु-परम्परा के विषय में इस प्रकार से उल्लेख किया है- इन्द्रगुरु दिवाकरपति अर्हन्मुनि लक्ष्मणसेन →> रविषेण । अपनी गुरु-परंपरा के अतिरिक्त अपना जरा भी परिचय आचार्य ने नहीं दिया है, किन्तु सेनान्त होने के कारण इनकी सेनसंघ के होने की संभावना की जाती है ।
रविषेण ने पद्मचरित की रचना वीर निर्वाण के १२०२१, बाद (सन् ६७७ ई०) में पूर्ण की थी । इसका उल्लेख ग्रन्थ से ही प्राप्त होता है।' बाह्य प्रमाणों से भी इसका यही समय २. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-६, पृ० ४२
१. भारतीय ज्ञानपीठ से तीन भागों में प्रकाशित है। ३. पद्मपुराण, १२३/१६८
४. तीर्थपुर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-२, पृ० - ३७६ ५.द्विशताभ्यधिके समासहस्रे समतीतेऽर्द्धचतुर्थवर्षयुक्ते । जिनभास्करवर्षमानसिद्धेश्चरितं पद्ममुनेरिदं निबद्धम् ।। - पद्मपुराण, १२३/१८७