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श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन
आगमेतर साहित्य से हमारा तात्पर्य उस साहित्य से है जो जैनागमों की विषय और शैली की दृष्टि से अनुयोग नामक एक विशेष व्याख्यान पद्धति के रूप में ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों से लिखा जाने लगा था । इसके आविष्कारक आचार्य “आर्यरक्षित” माने जाते हैं । अनुयोग पद्धति चार प्रकार से बतलाई गई है
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१. प्रथमानुयोग, २. करणानुयोग, ३. चरणानुयोग, ४. द्रव्यानुयोग
जिन ग्रन्थों में परमार्थ विषयों का कथन करने वाले तिरसठ शलाका-पुरुषों का अथवा अन्य पुण्यशाली महापुरुषों का चरित वर्णित होता है, उन्हें प्रथमानुयोग तथा जिन ग्रन्थों में लोकालोक विभाग, युग-परिवर्तन, चतुर्गति और कर्मादि का वर्णन होता है वे ग्रन्थ करणानुयोग तथा जिन ग्रन्थों में गृहस्थ और साधुओं की चारित्रोत्पत्ति, वृद्धि, रक्षा का वर्णन हो चरणानुयोग तथा जिनमें जीवादि सप्त तत्त्वों, पुण्य-पाप आदि का विवेचन किया जाता है उन्हें द्रव्यामुयोग ग्रंथों की संज्ञा दी जाती है ।
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इस प्रकार समस्त पुराण चरितकाव्य प्रथमानुयोग के अंतर्गत ही आते हैं । प्रथमानुयोग के अन्तर्गत अरहन्तों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण सम्बन्धित इतिवृत्त तथा शिष्यसमुदाय का वर्णन समाविष्ट है ।
जैन काव्य साहित्य की विषयवस्तु वस्तुतः विशाल है। जैन चरितकाव्यों में प्रायः तिरसठ शलाका पुरुष और २४ कामदेव तथा कतिपय अन्य पुण्यशाली पुरुषों का वर्णन मिलता है । २४ तीर्थङ्कर, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण, ९ बल्लभद्र और १ २ चक्रवर्ती इन तिरसठ महापुरुषों की जैन साहित्य में शलाका संज्ञा है । शलाका शब्द प्राचीन काल में प्रमाणबोधक वस्तु के लिए प्रयुक्त होता था । अतएव शलाकापुरुष से तात्पर्य उन महत्वपूर्ण व्यक्तियों से है, जो समाज में प्रमाण माने जाते थे, गणमान्य थे, जिनका समाज में रहना अनिवार्य था ।
इनके अतिरिक्त अनेक नरेशों के विविध प्रकार के आख्यान, नाना प्रकार के साधुसाध्वियों और राजा-रानियों के, ब्राह्मणों और श्रमणों के, सेठ-सेठानियों के, धनिक तथा दरिद्रों के, चोर और जुआरियों के, धूर्त और गणिकाओं के तथा विभिन्न प्रकार के मानवों को उद्देश्य कर लिखे गये ग्रन्थ हैं ।
काव्य निर्माण की दृष्टि से सबसे पहले संस्कृत के जैन कवि समन्तभद्र हैं, जिन्होंने ईस्वी सन् की द्वितीय शताब्दी में स्तुति-काव्य का सृजन कर जैनों के मध्य संस्कृत काव्य की परम्परा का श्रीगणेश किया । यह एक सर्वमान्य सत्य है कि संस्कृत भाषा में काव्यों का प्रादुर्भाव स्तुतियों से ही हुआ है।
१. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पद्य, ४३-४६
३. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग-६, पृ० ७
२. द्र० पार्श्वनाथचरित का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ०-१
४. संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान,
पृ० ५५-६०