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जैन चरित काव्य : उद्भव एवं विकास में किसी पुण्यशाली महापुरुष का चरित्र वर्णित होता है । चरितकाव्य सामान्यतः दो प्रकार के हो सकते हैं :१. जिन चरितकाव्यों का कथानक पुराणों से ग्रहण किया गया है ऐसे पौराणिक चरितकाव्य । २. जिन चरितकाव्यों का कथानक किसी ऐतिहासिक घटना या महापुरुष को लेकर लिखा गया है ऐसे ऐतिहासिक चरित काव्य ।
सर्वप्रथम जैनों के परम्परा सम्मत वाड्मय में जैन काव्य-साहित्य की क्या स्थिति है इसकी जानकारी प्राप्त कर लेना परमावश्यक है ।
भगवान महावीर के समय से लेकर विक्रम की बीसवीं शताब्दी के अन्त तक लगभग २५०० वर्षों के दीर्घकाल में जैन मनीषी प्राकृत, संस्कृत एवं अन्य सभी भारतीय भाषाओं में ग्रन्थ प्रणयन करते रहे, क्योंकि प्राकृत जन सामान्य की भाषा थी अतः लोकोपरक सुधारवादी रचनाओं का सृजन जैनाचार्यों ने प्राकृत भाषा में ही प्रारम्भ किया । भारतीय वाङ्मय के विकास में दिये गये जैनाचार्यों के सहयोग की प्रशंसा करते हुए डा० विटरनित्स ने लिखा है :
"I was not able to do full justice to the literary achievements of the jainas, but I hope to have shown that the jainas have contributed their full share to the religious ethical and scientific literature of ancient India."
__ अनुयोगद्वारसूत्र में प्राकृत और संस्कृत दोनों भाषाओं को ऋषिभाषित कहकर समान रूप से सम्मान प्रदान किया है।
सक्कया पाथया चेव भीणईओ होति दोण्णिवा ।
सरमडंलाम्मि विज्जते पसत्था इसिभासियो ।। स्पष्ट है कि संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं में साहित्य सृजन करने की स्वीकृति जैनाचार्यों द्वारा प्रदान की गयी है।
काव्य साहित्य के अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से आधुनिक विद्वानों ने पुरानी परिभाषाओं का ध्यान रखकर प्रमुख तीन भागों में बांटा है । प्रथम आगमिक, दूसरा अनुआगमिक
और तीसरा आगमेतर । आगमिक साहित्य आज हमें आचारांग आदि ४५ आगमों तथा उन पर लिखे विशाल टीका साहित्य, नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य और टीकाओं के रूप में उपलब्ध हैं । अनुआगमिक साहित्य दिगंबर मान्य और शौर-सैनी आगमों के साथ पाहुड, पटखण्डागम तथा कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के रूप में पाया जाता है ।
8. The Jalnas in the History of Sanskrit Literature Page - 4. २.जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-६, पृ०४