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अध्याय - एक (क) जैन चरितकाव्य परम्परा तथा नेमिनिर्वाण
.. उद्भव एवं विकास काव्य का स्वरूप
संस्कृत साहित्य शास्त्र में साहित्य का पर्यायवाची शब्द काव्य है, क्योंकि सुदीर्घ काल तक साहित्य-सृजन कविता में ही होता रहा है । आचार्य भामह ने (छठी शताब्दी) “शब्दार्थों सहितौ काव्यम्' कह कर शब्द और अर्थ के साहित्य को काव्य माना है और बाद में इसकी परिभाषा करते हुए पण्डितराज जगन्नाथ ने कहा है - रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम् । इस परिभाषा में रमणीय अर्थ और शब्द इन दोनों के द्वारा काव्य में रस, अलंकार और ध्वनि का समन्वय निहित है । पण्डितराज जगनाथ से बहुत पहले जिनाचार्य जिनसेन ने काव्य शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए उसकी परिभाषा इस प्रकार बतलायी है - “कवे वो अथवा कर्मकाव्यं"३ कवि के भाव अथवा कर्म को काव्य कहते हैं । कवि का काव्य सर्व-सम्मत अर्थ से सहित, ग्राम्यदोष से रहित, अलंकार से युक्त और प्रसाद आदि गुणों से शोभित होता है । अर्थात् शब्द और अर्थ का वह समुचित रूप जो दोषरहित तथा गुण और अलंकार सहित हो (रमणीय हो) काव्य है । ध्वनिवादी आचार्यों ने “ध्वनिरात्मा काव्यस्य" कह कर काव्य-शरीर में प्राणों की प्रतिष्ठा की
कुन्तक ने “वक्रोक्तिः काव्य जीवितम्" कहा है परन्तु विश्वनाथ ने इस पर आक्षेप किया है । विश्वनाथ के अनुसार वक्रोक्ति तो एक अलंकार मात्र है, वह काव्य का जीवन कैसे हो सकता है? किन्तु कुन्तक की वक्रोक्ति सामान्य अलंकार न होकर एक अपूर्व अलंकार है तथा विचित्रा अभिधा भी है, जो ध्वनि आदि के समान ही महत्त्वपूर्ण है।
काव्य की परिधि को बढ़ते हुये देखकर काव्यशास्त्रियों ने उसकी परिधि में आवश्यक संशोधन किया है । आचार्य मम्मट ने अपने काव्यप्रकाश में काव्य में स्फुट अलंकार के अभाव में भी काव्यत्व सुरक्षित माना है । उन्होंने दोषरहित, गुणवाली, अलंकारयुक्त तथा कभी-कभी अलंकार रहित शब्दार्थमयी रचना को काव्य कहा है । इसी तरह अपने युग की रचनाओं को ध्यान में रखकर आचार्य हेमचन्द्र ने काव्य की परिभाषा “अदोषौ सगुणौ सालंकारौ च शब्दार्थो-काव्यम्”६ मानते हुये भी सूत्र की वृत्ति में “चकारी निरलंकारयोरपि शब्दार्थयोः क्वचित् काव्यत्वख्यापनार्थः” लिखा है। १. काव्यालंकार १/१६
४. वक्रोक्तिप्रसिद्धाभिधानव्यतिरेकिणी विचित्रवाभिधा। २. रसगंगाधर, काव्यलक्षण पृ०११
-वक्रोक्तिजीवित, १/१० की वृत्ति। ३. आदिपुराण,१/९४
५. तददोषौ शब्दायाँ सुगणावनलंकृती पुनः क्वापि । ६. काव्यानुशासन, १/११
__ - काव्यप्रकाश, पृ०१