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श्रीमद्वाग्भटविरचित नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन आचार्य विश्वनाथ ने आनन्दवर्धन, कुन्तक और मम्मट के काव्य लक्षणों का खण्डन कर काव्य-लक्षण प्रस्तुत किया है - "वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' काव्य का यह लक्षण रस के महत्त्व को स्वीकार करता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि काव्य की परिभाषा युग की आवश्यकता के अनुसार बदलती रही है और विशाल एवं बहुविध काव्य-राशि को देखते हुये उनके काव्यत्व को जाँचने के लिए एक मापदण्ड स्थापित करना कठिन है । सचमुच “निरंकुणाः कवयः” यह लोकोक्ति कवियों के लिए उचित ही है। काव्य के भेद
काव्य भेद-निरूपण, काव्यशास्त्र की प्राचीनतम परम्परा है, काव्य निर्माण के साथ ही यह समस्या उठी होगी, यह अनुमान सहज एवं स्वाभाविक है । इस समस्या का समाधान सर्वप्रथम भामह ने चार मान्यताओं के आधार पर पृथक् पृथक् चार प्रकार से काव्य-भेद प्रस्तुत करके किया
१. छन्द के सद्भाव या अभाव के आधार पर - (अ) गद्य,(ब) पद्य २. भाषा के आधार पर- (अ) संस्कृत, (ब) प्राकृत, (स) अपभ्रंश ३. विषय के आधार पर- (अ) ख्यातवृत्त, (ब) कल्पित, (स) कलाश्रित, (द) शास्त्राश्रित ४. स्वरूप के आधार पर - (अ) सर्गबन्ध, (ब) अभिनेयार्थ, (स) आख्यायिका, (द) कथा (य) अनिबद्ध
इस प्रकार उक्त चारों वर्गीकरण का आधार ही प्रायः पश्चात्वर्ती समस्त काव्यशास्त्रियों का आधार बना और वे इसी में ही कुछ परिवर्तन या परिवर्धन कर वर्गीकरण प्रस्तुत करते रहे । वास्तव में भामह के वर्गीकरण में एक दोष मुख्य रूप से यह है कि उन्होंने खण्डकाव्य को बिल्कुल ही भुला दिया है । आचार्य दण्डी कथा और आख्यायिका को दो अलग-अलग भेद न मानकर एक ही के दो नाम मानते हैं । जैन चरितकाव्य
जैन चरितकाव्य से हमारा तात्पर्य उस साहित्य से है जो काव्यशास्त्रोक्त विधिविधान को अपना कर काव्य की विभिन्न विधाओं में लिखा गया है किन्तु जिनमें जैन धर्मोक्त चत्रिों को ही वर्णित किया गया है । संस्कृत साहित्य में चरितकाव्यों की एक सुदीर्घ परम्परा है । चरितकाव्यों १. साहित्यदर्पण, १/३, पृ० २३ २. शब्दार्थो सहितौ काव्यं गद्यं पद्यं च तदद्विधा ।संस्कृतंप्रकृतं चान्यदअपभ्रंश इति विधा ।।
कृतदेवादिचरितशंसिचोत्पाद्यवस्तु च । कलाशास्त्रात्रवंचेति चतुर्धाभिद्यते पुनः ।। सर्गबन्धोऽभिनेयार्थ तवैवख्यायिकाकथे । अनिबद्धञ्च काव्यादि तत्पुनः पचंद्योच्यते।।
-काव्यालंकार, १/१६-१८