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जैन चरित काव्य : उद्भव एवं विकास सिद्ध होता है । क्योंकि उद्योतनसूरि और आचार्य जिनसेन ने इनका उल्लेख किया है । इन दोनों का समय आठवीं शताब्दी है।
अष्टम शताब्दी २. वरांग चरित' (जटासिंह नन्दि)
यह ३१ सर्म में निबद्ध चरितकाव्य है । कवि ने श्रीकृष्ण और तीर्थकर नेमिनाथ के समकालीन भोजवंशी महाराज धर्मसेन के पुत्र “वरांगकुमार" का चरित्र अंकित किया है । इसमें जैन दर्शन और जैनाचार का विवेचन किया गया है । यह अश्वघोष के बुद्धचरित और सौन्दरानन्द की कोटि का काव्य है । रचयिता : रचनाकाल
इस काव्य के रचयिता जटासिंह नन्दि हैं । जैन चरितकाव्यों में संस्कृत के आद्य चरितकाव्य रचयिता का गौरव इन जटाचार्य को ही प्राप्त है । यद्यपि इससे पूर्व पद्मचरित की रचना हो चुकी थी, किन्तु उसमें पौराणिक तत्त्व अधिक थे । उनका व्यक्तिगत परिचय सर्वथा अज्ञात है । वरांगचरित के वर्णनों के आधार पर डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने इन्हें दाक्षिणात्य माना है। उद्योतन सूरि ने रविषेण के साथ वरांगचरित का भी उल्लेख किया है ।' उद्योतनसूरि के (सन् ७७८ ई०) पश्चातवर्ती अनेक कवियों ने इनका स्मरण किया है । प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला इनका समय सातवीं शताब्दी से आगे ले जाना उचित नहीं मानते हैं । डा० रामजी उपाध्याय ने इनका समय सातवीं-आठवीं शताब्दी का सन्धिकाल माना है ।' ३. हरिवंशपुराण (आचार्य जिन सेन)
यह दिगम्बर सम्प्रदाय का प्रमुख (चरित) पुराण ग्रन्थ है । हरिवंश की कथावस्तु जिनसेन को अपने गुरु कीर्तिसेन से प्राप्त हुई थीं । कथावस्तु ६६ सर्गों में निबद्ध है ।
इस काव्य में प्रमुख रूप से २२ वें तीर्थङ्कर का चरित्र निबद्ध है । परन्तु प्रसंगोपात्त अन्य कथानक भी लिखे गये हैं । भगवान नेमिनाथ के साथ नारायण श्रीकृष्ण तथा बलभद्र पद के धारक श्री बलराम के भी कौतुक व चरित्र अंकित हैं । हरिवंशपुराण पर रविषेण के पद्मपुराण और जटासिंह के वरांगचरित का प्रभाव है । रचयिता : रचनाकाल
हरिवंश पुराण काव्य के प्रणयन कर्ता श्री आचार्य जिनसेन हैं । ये पुन्नाट संघ के आचार्य
१.कुवलयमाला, अनुच्छेद ६, पृ० ४
२.हरिवंशपुरा,१/३४ ३. भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ मथुरा से १९५३ ई० में सानुवाद प्रकाशित । ४.तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-२, पृ० २९३ ५.कुवलयमाला, अनुच्छेद ६, पृ० ४
६.वरांगचरित, भूमिका, पृ० २६ ७.संस्कृत साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, भाग-१,पं० ४०५