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१५६ | नानार्थोदयसागर कोष : हिन्दी टीका सहित -- दाक्षिण्य शब्द
दिगम्बरः शिवे नग्ने तमः क्षपणयोरपि । दिग्धो विषाक्तवाणेऽग्नौ प्रबन्ध-स्नेहयोरपि ।। ८५.७ ।।
हिन्दी टीका - दाक्षिण्य शब्द नपुंसक है और उसके दो अर्थ होते हैं - १. अनुकूलत्व ( अवैपरीत्य ) २. दक्षिणाचार (उदार आचार विचार ) किन्तु दक्षिणार्ह ( दक्षिणा देने योग्य) अर्थ में दाक्षिण्य शब्द त्रिलिंग माना जाता है । दिक्पति शब्द का अर्थ - दिगधीश्वर ( दिशा का मालिक) होता है । दिगम्बर शब्द के चार अर्थ होते हैं - १. शिव, २. नग्न (नंगा) ३. तमः (अन्धकार) और ४. क्षपणक ( संन्यासी) । दिग्ध शब्द के चार अर्थ होते हैं - १. विषाक्त वाण ( जहर से लिपा हुआ वाण) २. अग्नि (आग) और ३. प्रबन्ध तथा ४. स्नेह ( प्रेम प्रीति ) ।
मूल :
दिति नृपविशेषे च खण्डने दैत्यमातरि ।
दिवं स्वर्गे वने व्योम्नि दिवसेऽथ दिवाकरः ।। ८५८ ।। सूर्यवायसयोरर्क वृक्ष - पुष्प विशेषयोः । दिवाकीर्तिस्तु चण्डाले नापितोलूकयोः पुमान् ॥ ८५६ ॥ हिन्दी टीका - दिति शब्द पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग है उनमें पुल्लिंग दिति शब्द के दो अर्थ माने जाते हैं - १. नृप विशेष और २ खण्डन और स्त्रीलिंग दिति शब्द का अर्थ - १. दैत्यमाता (दिति नाम की दैत्यमाता) है । दिव शब्द के तीन अर्थ माने जाते हैं - १. स्वर्ग, २. वन, और ३. व्योम (आकाश) । दिवाकर शब्द पुल्लिंग है और उसके पाँच अथ होते हैं - १. दिवस ( दिन) २. सूर्य, ३. वायस ( कौवा, पक्षी विशेष ) ४. अर्कवृक्ष (ऑक का वृक्ष) और ५. पुष्प विशेष । दिवाकीर्ति शब्द पुल्लिंग है और उसके तीन अर्थ माने गये हैं - १. चण्डाल ( भंगी - डोम- दुसाध - हलाल खोर) २. नापित (हजाम) और ३. उलूक (उल्लूपक्षी विशेष जिसको रात में ही सूझता है) ।
मूल :
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दिवाभीत उलूके स्यात्तस्करे कुमुदाकरे |
स्यादु दिवौका दिवोकाश्च सुरे चातकपक्षिणि ॥। ८६० ।। दिव्यं लवंगे शपथे मनोज्ञ हरिचन्दने । दिव्यो यवे दिविभवे गुग्गुलौ नायकान्तरे ॥ ८६१ ॥
हिन्दी टीका - दिवाभीत शब्द पुल्लिंग है और उसके तीन अर्थ माने जाते हैं - १. उलूक (उल्लू पक्षी विशेष) २ तस्कर (चोर) और ३. कुमुदाकर । दिवौकस् और दिवोकस शब्द के दो अर्थ माने जाते हैं१. सुर (देवता) २. चातक पक्षी (जोकि स्वातीनक्षत्र के जल का पिपासु होता है) । नपुंसक दिव्य शब्द के चार अर्थ माने जाते हैं - १ लवंग, २. शपथ (सौगन्ध ) और ३. मनोज्ञ (सुन्दर) और ४. हरिचन्दन (नागकेशर) | पुल्लिंग दिव्य शब्द के चार अर्थ माने गये हैं - १. यव (जौ) २. दिविभव (अलौकिक अपूर्व अद्भुत वगैरह ) ३. गुग्गुलु (गूगल) और ४. नायकान्तर (नायक विशेष, दिव्य नायक) 1
मूल :
भावभेदेऽप्यथो दिव्य चक्षुः सुन्दर लोचने ।
स्वर्गीय चक्षुषि ज्ञान चक्षुष्यन्धोपचक्षुषोः ॥ ८६२ ॥
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