Book Title: Nanarthodaysagar kosha
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 389
________________ ३७० | नानार्थोदयसागर कोष हिन्दी टीका सहित- - सम्भव शब्द हिन्दी टीका - सम्भव शब्द के और भी दो अर्थ माने जाते हैं - १. आधेयस्य आधारानतिरिक्तव ( आधेय को आधारस्वरूप मानना) तथा २. जिनान्तर (जिन विशेष ) । सम्भाव शब्द के तीन अर्थ माने जाते हैं - १. सर्व पूर्णत्व २. सम्भूति ( ऐश्वर्य ) ३. समवाय । सम्भेद शब्द के भी तीन अर्थ माने जाते हैं१. स्फुटन (स्फुटित होना) २. मेलन (मेल कराना) और ३. सिन्धुसंगम ( नदी संगम ) । सम्भोग शब्द के चार अर्थ माने जाते हैं - १. सुरत ( विषय भोग ) २. भोग (सुख) ३. प्रमोद (आनन्द) और ४. केलिनागर (केलि करने वाला नागर पुरुष विशेष ) । मूल : जिनशासन शृङ्गार - भेदयोरप्युदीरितः । संम्भ्रमः स्याद्भये सूत्रे संवेगे च महाभ्रमे ॥ २१५० ।। सम्मतिः स्यादनुज्ञायामात्मज्ञानाभिलाषयोः । संमिश्रस्त्रिषु संयुक्त मिश्रितेऽपि प्रयुज्यते ।।२१५१ ।। हिन्दी टीका - सम्भोग शब्द के और भी दो अर्थ माने जाते हैं - १. जिनशासन (भगवान् तीर्थङ्कर का शासन) और २. शृङ्गारभेद (शृङ्गार विशेष ) । सम्भ्रम शब्द के चार अर्थ माने जाते हैं१. भय, २. सूत्र और ३ संवेग (त्वरा) और ४ महाभ्रम (अत्यन्त बड़ा भय) को भी सम्भ्रम कहते हैं । सम्मति शब्द के तीन अर्थ होते हैं - १. अनुज्ञा (अनुमति) २. आत्मज्ञान और ३. अभिलाषा ( मनोरथ स्पृहा ) त्रिलिंग संमिश्र शब्द के दो अर्थ माने गये हैं- १. संयुक्त ( जुटा हुआ ) और २. मिश्रित ( मिला हुआ ) । मूल : संमूर्च्छनमभिव्याप्तौ तद्वदुच्छ्राय - मोहयोः । सम्यक् स्याद् वाच्यवल्लिग: संगते सत्यवाच्यपि ।। २१५२ ।। रम्ये प्रथम कल्पादौ सम्यक् समुदयेऽव्ययम् । सरो ना लवणे बाणे दध्यग्र े च गतावपि ।। २१५३ ।। हिन्दी टोका - सम्मूर्च्छन शब्द के तीन अर्थ माने गये हैं-- १. अभिव्याप्ति ( व्यापकता ) और २. उच्छ्राय (ऊँचाई) तथा ३. मोह । सम्यक् शब्द - १. संगत और २ सत्यवाक् अर्थ में वाच्यवत्लंग ( विशेष्यनिघ्न) माना जाता है किन्तु अव्यय सम्यक् शब्द के तीन अर्थ सुन्दर) २. प्रथम कल्पादि (सृष्टि का आदि) और ३. समुदय (उन्नति ) । चार अर्थ माने गये हैं - १. लवण (नमक) २. बाण, ३. दध्यग्र (दही का अगला भाग मक्खन मलाई) और ४. गति ( गमन) इस प्रकार सर शब्द के चार अर्थ समझना चाहिये । माने गये हैं - १. रम्य ( रमणीय सर शब्द पुल्लिंग है और उसके मूल : Jain Education International निर्झरे तु द्वयोः प्रोक्तः सारके गन्तरि त्रिषु । सरं स्यात् सरसा सार्द्धं तडागे सलिलेऽपि च ।।२१५४ ॥ सरकोsस्त्री शीधुपान - शीधुभाजनयोरपि । अच्छिन्नाध्वगपंक्तौ च स्यान्मद्य परिवेषणे ।। २१५५ ।। - हिन्दी टीका - १. निर्झर (झरना) अर्थ में सर शब्द पुल्लिंग तथा नपुंसक माना गया है किन्तु २. सारक ( ले जाने वाला) और २. गन्ता ( जाने वाला) अर्थ में सर शब्द त्रिलिंग माना जाता है। नपुंसक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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