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नानार्थोदयसागर कोष : हिन्दी टीका सहित-विश्व शब्द | ३०१ विश्वंभरो हरौ शक्र पृथिव्यां तु स्त्रियामसौ।
विषं जले वत्सनाभे गरले पद्मकेशरे ॥१७२६॥ हिन्दी टीका-पुल्लिग विश्व शब्द के और भी दो अर्थ माने जाते हैं-१. गणदेवविशेष (प्रमथादिगणों में विश्व नाम का गणदेव विशेष) और २. मानभेद (मान विशेष - परिमाण विशेष, विशवा नाम का परिमाण) किन्तु ३ अखिल (सारा) अर्थ में विश्व शब्द त्रिलिंग माना जाता है । विश्वकर्मा शब्द नकारान्त पुल्लिग है और उसके भी दो अर्थ माने जाते हैं- १. सहस्रांशु (सूर्य) और २. त्रिदशानां शिल्पी (देवों का सुतार, विश्वकर्मा नाम के प्रसिद्ध कारीगर)। पुल्लिग विश्वंभर शब्द के दो अर्थ होते हैं-१. हरि (भगवान विष्णु) २. शक्र (इन्द्र) किन्तु ३. पृथिवी (भूमि) अर्थ में विश्वंभरा शब्द स्त्रीलिंग माना जाता है। विष शब्द नपुंसक है और उसके चार अर्थ माने जाते हैं -१. जल (पानी) २. वत्सनाम (बछड़े की नाभि) ३. गरल (जहर) और ४. पद्मकेशर (कमल का किजल्क) इस प्रकार विष शब्द के चार अर्थ जानना। मूल : नियामके जनपदे कान्तादौ नित्य सेविते ।
रूपादौ विषयो ऽव्यक्त आरोपाश्रय-शुक्रयोः ।।१७२७॥ विषयी राज्ञि कन्दर्पे ध्वनौ वैषयिके पुमान् ।
त्रिलिङ्गो विषयासक्ते हृषीके तु नपुंसकम् ॥१७२८॥ हिन्दी टोका-विषय शब्द पुल्लिग है और उसके आठ अर्थ होते हैं-१. नियामक (नियम करने वाला) २. जनपद (देश) ३. कान्तादि (कान्त-पति वगैरह) ४. नित्यसेवित (सतत सेवायुक्त) ५. रूपादि (रूप-रस-गन्ध-स्पर्श शब्द तथा आशय) ६. अव्यक्त (अस्पष्ट-स्पष्ट नहीं) ७. आरोपाश्रय (आरोप का आश्रय-आधार) तथा ८. शुक्र । विषयी शब्द नकारान्त पुल्लिग है और उसके चार अर्थ माने जाते हैं--- १. राजा, २. कन्दर्प (कामदेव) ३. ध्वनि (शब्द) और ४. वैषयिक (विषय सम्बन्धी) किन्तु त्रिलिंग विषयी शब्द का अर्थ-१. विषयासक्त (विषयलम्पट) होता है । परन्तु २. हृषीक (विषयेन्द्रिय चक्षु वगैरह) अर्थ में विषयी शब्द नपुंसक माना जाता है । इस प्रकार विषयी शब्द के छह अर्थ जानना। मूल : विषाणं गजदन्ते स्यात् कुष्ठभेषज-शृङ्गयोः ।
विषाणिका मेषशृङ्गी-सातलाऽऽवर्तकीषु च ॥१७२६॥ हिन्दी टीका-विषाण शब्द के तीन अर्थ होते हैं-१. गजदन्त (हाथी का दांत) २. कुष्ठभेषज (कोठ नाम का औषध विशेष) और ३. शृंग । विषाणिका शब्द के भी तीन अर्थ होते हैं-१. मेषशडी. २. सातला (सेहुड़-थहर) और ३. आवर्तकी को भी विषाणिका कहते हैं। मूल : विष्कम्भः प्रतिबन्धे स्यात् विस्तारे ऽर्गल-वृक्षयोः ।
योगिबन्धान्तरे योग - रूपकाङ्ग - प्रभेदयोः ॥१७३०॥ विष्टम्भः प्रतिबन्धे स्याद् आनाहरुजि कीर्तितः। विष्टरो दर्भमुष्टौ स्यात् पीठाद्यासन-शाखिनोः ॥१७३१॥ विष्टिः स्त्री वेतने वृष्टौ भद्रा ऽऽजू-कर्मसु स्मृता । त्रिषु कर्मकरे विष्टिर्दू रस्थाने तु बिष्ठलम् ॥१७३२॥
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