________________ प्रथमः सर्गः। (खट्टे) द्रव्य में सममात्रामें प्रक्षेप करनेसे एक मधुर द्रव्यके तीन मेद होते है, इसी प्रकार 1 द्रव्यों में न्यून, अधिक और मम मात्रामें द्रव्यान्तर गलनेसे 18 भेद हो जाते हैं। अपवादंडवाले जौ-गेहूँ आदि, फळी ( छीमी) वाले मटर आदि, कण्टकवाले चना प्रादि-ये तीन प्रकारके धान्य, भचर-जलचर तथा खेचर जीवों के विविध मांस, अम्लादि पूर्वोक्त 6 रस और कन्द-मूल-फळ-नाक-पत्र-पुष्परूपमें 6 प्रकारके शाक (3+3+6+6= 18) इस प्रकारसे विस्तारको प्राप्तकर पाकशाखके महापण्डित इस नरू की रसनाग्रनतको विद्याने अठारह द्वीपोंकी जयलक्ष्मीको पृथक् पृथक् जीतनेके लिए मानो अठारह संख्याको प्राप्त किया है / अथवा-दूध-दही' आदिके अङ्गगुणों से विस्तारको प्राप्त, नलकी रसनाप्र. नर्तकी पाकशासविद्याने...... / अथवा-तव्यसनी होने से बहुत बोलने वाले ना की रसनायनर्तकी द्यूतविया दुआ-तिया-चौका-पक्षा तथा चार उड्डीयक (2+3+4+5+ 4- 18 ) रूप गुणोंसे विस्तारको प्राप्त मठारह दीपोंकी जयश्री ...." / भवाप्रयीका उद्धाररूप अथर्ववेद, व्याकरण आदि 6 वेदान, गुण अर्थात् आठ मषान पुराणन्याय-मीमांसा-धर्मशास्त्र-आयुर्वेद-धनुर्वेद-पान्धर्ववेद और अर्थशास; तथा ऋक-यजुः सामवेद (1+6+843 - 18) इन अङ्गगुणों से विस्तारको प्राप्त इस नम्की जियान, नर्तकी विद्या......। पूर्वश्लोकोक्ति 14 विद्या तथा आयुर्वेद, धनुर्वेद-गान्धर्ववेद और अर्थशाख (14+4 - 18) ये अठारह विद्याएँ नलके जिह्वाग्रपर सर्वदा निवास करती थीं और उन्होंने अठारहों दीपोंको भी पीत लिया था, इस प्रकार नळ परस्परविरोधिनी भी और सरस्वती दोनों के माश्रय थे ] // 5 // दिगीशवृन्दांशविभूतिरीशिता दिशां स कामप्रसभावरोधिनीम् / बभार शास्त्राणि दृशं व्याधिको निजत्रिनेत्रावतरत्वबोधिकाम् / / 6 // ___ अथास्य देवांशत्वमाह-दिगीशेति / दिशामीशा दिगीशाः दिक्पाला इन्द्रादयः तेषां वृन्दं समूहः तस्य मात्राभिः अंशः विभूतिन्मयः यस्य तथाभूतः। तथा च 'इन्द्रानिलयमार्काणामग्नेश्व वरुणस्य च / चन्द्रवित्तेशयोथैव मात्रा निहत्य शाधती. रिति / 'अष्टाभिर्लोकपालानां मात्राभिनिर्मितो नृप' इति च स्मृतिः। दिशाम ईशिता ईश्वर स नलः शाबाणि दिशामिति च बहुवचन निदंशात् इन्द्रादीनामेककदिगीशस्वम् अस्य तु सर्वदिगीशितृत्वमिति व्यतिरेको ग्यज्यते। कामम् इच्छा मदनञ्च मदनस्य प्रसभेन बलात् अवरुणनीति तथोक्ता स्वेच्छाप्रवृत्तिनिवारिणी कन्दर्पदहनकारिणीम्चेत्यर्थः / कामप्रसरावरोधिनीमिति पाठे कामस्य प्रसरः विस्तारः वृद्धिरिति यावत् तमवरुणदीति तथैवार्थः। निजम् आरमीयं बत् त्रिनेत्रावत. 1. तदुक्तम्-'दुग्धं दधि नबनीतं घोलबने तक्रमस्तुयुगम् / मध्वाटविकविण्यं विदबान्नश्चेति विशेयम् // कन्दो मूलं शाखा पुष्पं पत्रं फळनेति / अष्टादशक मांसं मवाण्युक्तानि गिरिमतया // इति /