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सम्यक्दर्शन के लिए जागरिका शब्द का प्रयोग बहुत उपयुक्त है और जैन दर्शन से सम्बन्धित भी है । साधना के क्षेत्र में जागृति वहीं से शुरू होती है, जहां शरीर और आत्मा इन दोनों का भेद ज्ञान हो जाता है । जब तक इनका भेद - ज्ञान नहीं होता, जागृति नहीं होती । और वास्तव में सम्यक्दर्शन का अर्थ ही है-भेद - ज्ञान, जहां चेतन और अचेतन की भिन्नता का स्पष्ट बोध होता है | आचार्य कुन्दकुन्द तथा उनके पीछे अनेक व्याख्याकारों ने मुख्यतः यही प्रतिपादित किया है ।
स्थितप्रज्ञ की प्रज्ञान्तर से पृथक् प्रतीति होना, चैतन्य द्रव्य की अन्य द्रव्यों से पृथक् प्रतीति होना, यही सम्यक्दर्शन है और यही वास्तव में आत्मा है । यह सम्यक्दर्शन या जागरिका, एक ही बात है । और यहीं से हमारे जागरण का प्रारम्भ होता है । जब हमने यह समझ लिया कि आत्मा भिन्न है और ये जितने बाकी द्रव्य हैं, विकल्प हैं, संकल्प हैं, शरीर हैं, और शरीरजनित अनुभूतियां हैं, ये सारी की सारी भिन्न हैं । यह हमारा जागरिका का परिणाम है । इसलिए सम्यक्त्व के लिए जागरिका शब्द का चुनाव बहुत - उचित है ।
जागरिका
भगवान् से पूछा - 'मनुष्य कितने प्रकार के होते हैं ?'
भगवान् ने उत्तर दिया- 'मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं—सुप्त, सुप्तजागृत और जागृत '
पुराने जमाने की बात है । शंख और मुद्गल भगवान् के श्रावक थे । एक बार शंख ने कहा, 'हम भोज करेंगे, सब मिलकर खायेंगे ।' वह धर्म - आराधना में लग गया । दूसरे सारे इकट्ठे हो गये । भोजन बनाया । वह नहीं आया तो सबको बहुत बुरा लगा । सब भगवान् के पास गये। वहां शंख बैठा था । उसे देखकर उन्होंने कहा, 'शंख ! तुमने हमारे साथ बहुत बड़ा धोखा किया। पहले तो तुमने हमसे कहा कि भोज करेंगे, अच्छे-अच्छे भोज बनाओ । हमने बना लिये । सब आ गये और तुम नहीं आये । तुमने हमारे साथ विश्वासघात किया है ।'
भगवान् ने कहा, 'ऐसा मत कहो । इसने तुम लोगों के साथ विश्वासघात नहीं किया, धोखा नहीं दिया ।
'तो भंते ! फिर इसने क्या किया ? '
भगवान् ने कहा, 'इसने सुप्त जागरिका की ।'
फिर पूछा कि जागरिका कितने प्रकार की होती है ?