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जागरिका
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जब ध्यान की ऊर्जा के द्वारा इतना कार्य हो सकता है, बाहरी पुद्गलों पर इतना आघात हो सकता है तो प्राण के द्वारा भी सचित्त पुद्गल पर गहरा आघात होता है । इसलिए त्राटक का निषेध नहीं, निषेध है सचित्त वस्तु पर त्राटक करने का । इसी प्रकार प्राणायाम का निषेध नहीं, यह निषेध है वैसे प्राणायाम का, जिसके द्वारा दूसरों को ताप पहुंचे, पीड़ा पहुंचे, जीवों की हिंसा हो । यह निषेध क्यों हुआ ? मूलतः यह चला है आवश्यक निर्युक्ति से। वहां आया है कि मुनि श्वासोच्छ्वास का निरोध न करे । यह निषेध नहीं किन्तु. इसे निषेध समझने का कारण यह है कि जैन परम्परा में महाप्राण ध्यान की साधना चलती थी । महाप्राण ध्यान का दूसरा नाम है संवरध्यान योग । महाप्राण ध्यान की साधना करने वाला मुनि श्वास का निरोध कर लेट जाता है । महीनों तक निष्प्राण मुर्दे की तरह लेटा रहता है । प्राण को ब्रह्मरन्ध्र में केन्द्रित कर लेट जाता है और उसका यह क्रम महीनों महीनों तक चलता रहता है । यह महाप्राण ध्यान की साधना चलती थी । उसमें खतरा भी बहुत था । अगर उत्तर साधक सावधान न हो तो साधक के लिए खतरा पैदा हो जाता है । पुष्यमित्र आचार्य ने महाप्राण ध्यान की साधना की थी । उत्तर साधक कोई उपयुक्त नहीं था । उन्होंने अपने एक शिष्य, जो कि किसी कारण से थोड़ा अलग चल रहा था, उसे बुलाकर कहा, "देखो, मैं महाप्राण ध्यान की साधना कर रहा हूं। तुम मेरे पास रहो और रखो ।"
मेरी साधना का ध्यान
कि बात
कहा कि
आचार्य अन्दर जाकर कमरे में लेट गए । एक दिन बीता, दो दिन बीते कई दिन बीत गए । आचार्य के जो शिष्य थे, उन्होंने देखा क्या है, आचार्यजी आ नहीं रहे हैं । देखना चाहा तो उस शिष्य ने यहां से देख सकते हो, इससे आगे नहीं जा सकते । उन शिष्यों के मन में संदेह पैदा हो गया कि शायद इसने आचार्यजी को मार दिया, अन्यथा पास जाने से क्यों रोकता। वहां का राजा आचार्य का बहुत बड़ा भक्त था । शिष्य लोग राजा के पास गये और कहा कि ऐसा लगता है कि उस शिष्य ने आचार्य को मार डाला है और हमें जाने नहीं देता है । राजा को यह बात बहुत बुरी लगी । राजा आया । उसने अन्दर जाने की कोशिश की । शिष्य ने सोचा कि संकट का समय आ गया है । उसने अन्दर जाकर आचार्य का अंगूठा दबाया । ऊर्ध्वगमन को नीचे लाने के लिए अंगूठे को दबाया । और एकदम मूर्छा भंग हो गयी । आचार्य उठकर बैठ गए । उन्होंने उठते ही कहा, “शिष्य ! तुमने