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महावीर की साधना का रहस्य घटित होता है, उसका प्रभाव होता है, इसका मतलब यह है कि मैं वृत्ति का जीवन जी रहा हूं, वेदना का जीवन जी रहा हूं। और यदि सामने घटित होने वाली घटनाएं आपको प्रभावित नहीं करतीं, तो निश्चित्त ही उस कसौटी पर कसकर आप यह देख सकते हैं, आप ज्ञान का जीवन जी रहे हैं, ज्ञान के स्तर का जीवन जी रहे हैं, वेदना के स्तर का जीवन नहीं जी रहे
हमारे जीवन में जितने ऊबड़-खाबड़ स्थल आते हैं, जितने उतार और चढ़ाव आते है, जितनी समस्याएं और उलझनें आती हैं, वे सारी की सारी इन वृत्तियों के माध्यम से मन में संक्रान्त होती हैं। मन बेचारा इतना भोला है कि ले लेता है । हर बात को पकड़ लेता है। बच्चे के हाथ में जाकर आप कुछ भी दे देजिए, बच्चा ले लेगा। उसे पता नहीं कि लेना चाहिए या नहीं लेना चाहिए। यह मन का भोलापन ही है, मन का दोष नहीं है। मन का अपना कोई दोष नहीं है, मन की अपनी कोई मलिनता नहीं है, मन की अपनी कोई क्रूरता या कपटता नहीं है। अगर दोष मानें तो वह इतना ही कि वह भोला है और भोला होने के कारण वृत्तियों को स्वीकार कर लेता
- मन पर जितना प्रभाव होता है वह सारा का सारा वृत्तियों का होता है। प्राण मन को उत्पन्न करता है और वृत्तियां उसे दोषपूर्ण बनाती हैं । अब हमें करना क्या है ? हमारा ध्यान सीधा जाता है मन को शान्त करें, मन को विलीन करें, मन को किसी चीज में मिला दें। मैं समझता हूं कि यह मूल को पकड़ने की बात नहीं है । जिसे हमें पकड़ना चाहिए, वह है वृत्तियों का संशोधन । वृत्तियों का संशोधन होना चाहिए। जब वृत्तियों का संशोधन होगा, तब आप सहज ही मानिए कि मन की जितनी चंचलता है, मन की जितनी सक्रियता है, वह अपने आप ही कम हो जाएगी।
उस योद्धा को किसने तलवार म्यान से निकालने के लिए प्रेरित किया ? उस योद्धा को किसने तलवार हाथ में उठाने के लिए प्रेरित किया ? और उस योद्धा को किसने तलवार साधक के गले के नजदीक ले जाने के लिए प्रेरित किया ? वृत्तियों ने ऐसा किया । जैसे ही वृत्ति पर चोट लगी, अभिमान की वृत्ति पर चोट लगी, तलवार उठ गई, म्यान से निकल गई और साधक के गले तक पहुंच गई । जैसे ही अभिमान की वृत्ति पर थोड़े छीटे डाले गए, तलवार नीचे गिर गई। हम लोग स्वयं अनुभव, करें कि जहां-जहां