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महावीर की साधना का रहस्य
समाधि बढ़ती है ।
विनय की समाधि में खाली होने की बात आती है । खाली हो जाने का अर्थ है – सम्पूर्ण समर्पित हो जाना । इतना समर्पित कि जो आता है आदेश, जो होता हैं इंगित या इशारा, वैसे ही करना है । यह बहुत बड़ी बात है, उलझन है । हर आदमी ऐसा कर नहीं सकता। ऐसा साधक ही कर सकता है, दूसरा कोई नहीं । साधक में भी वही साधक कर सकता है जिसने कषाय का विसर्जन प्रारम्भ कर दिया है । अहं कषाय का बहुत बड़ा हिस्सा है । जिसने इसका विसर्जन प्रारम्भ कर दिया वही इस समाधि तक पहुंच पाता है । जब तक मन में अप्रियता होती है, तब तक दूसरे की बात स्वीकार नहीं होती । क्योंकि उसके प्रति भी अप्रियता है । वह उसे अप्रियता की दृष्टि से देखेगा । अप्रियता घृणा है । बात अनुकूल न हो तो अप्रियता ही उत्पन्न होती है, घृणा ही उत्पन्न होती है । मैं जब यह मान लेता हूं कि अमुक व्यक्ति मेरे लिए हितकर नहीं है तो उसके प्रति अप्रियता ही कर सकता हूं। 'अप्रियता से भरा हुआ हूं मैं ।' इसका अर्थ है कि अस्वीकार करता जा रहा हूं, अमान्य करता जा रहा हूं । यह मैं नहीं करता किन्तु मेरे भीतर छिपा हुआ अप्रियता का बीज करता है । जिस दिन मैं इस अप्रियता की बात से मुक्त हो जाऊं या मन को उससे खाली कर दूं तो मेरे मन में प्रतिक्रिया नहीं होगी । जब अहं नहीं है, अप्रियता नहीं है तो उस पर चोट नहीं होगी । जब चोट नहीं होगी M तो मन में प्रतिक्रिया भी नहीं होगी । फिर तो जो कहा, वह सब ठीक है ।
एक संन्यासी मिले थे कहीं । वे कहते थे – 'हम लोग अहं विसर्सजन की बहुत बड़ी साधना करते हैं । मैंने पूछा – कैसे ?' वे बोले – 'कोई भी व्यक्ति हमें कुछ कह देता है तो हम तत्काल उसकी बात को स्वीकार कर लेते हैं । मान लीजिए कि मैं देह - चिन्ता से निवृत्त होने के लिए बाहर जा रहा हूं । किसी ने कह दिया- ' बाबाजी ! बार-बार क्यों घूमते हो ! भीतर बैठ जाओ ।' मैं भीतर बैठ जाऊंगा । उस समय बाहर नहीं जाऊंगा । यह अच्छा तो नहीं है । शरीर के वेग को रोकना बीमारी को आमंत्रित करना है । परंतु मैं बाहर नहीं जाऊंगा, भीतर बैठ जाऊंगा। पांच-दस मिनट बैठकर फिर भले ही बाहर जाऊं, उस समय नहीं जाऊंगा ।
यह बात विचित्र सी लगती है, पर साधकों में ऐसा रहा है । हमारे संघ की एक घटना है । श्रीमज्जयाचार्य ने एक साध्वी से कहा - ' बैठ जाओ, इस आले में ।' वह बैठ गई और घंटों तक बैठी रही उस आले में । अगर तर्क