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महावीर की साधना का रहस्य
भविष्य । वर्तमान वही है जो अतीत से टूट चुका है और भविष्य से विच्छिन्न है । जहां न अतीत है और न भविष्य है, केवल वर्तमान है । अतीत का अस्तित्व नहीं है क्योंकि वह बीत चुका । अनागत का भी अस्तित्व नहीं है क्योंकि वह अभी तक प्राप्त नहीं है । अस्तित्व है केवल वर्तमान का, क्योंकि वह है । इसीलिए साधना में वर्तमान का महत्त्व है, न अतीत का और न भविष्य का । हम वर्तमान में जीयें। यदि हम वर्तमान में जीते हैं तो साधना बहुत आगे बढ़ जाती है।
हमें ध्यान वर्तमान में करना है। उस समय विघ्न आता है अतीत से । इतनी स्मृतियां उभरने लगती हैं कि वर्तमान हाथ से छूट जाता है, डोर छूट जाती है, वर्तमान का क्षण निकल जाता है । और ध्यान-साधक अतीत के प्रवाह में बह जाता है । उसका अन्त नहीं है । स्मृतियों का क्या अन्त हो ?
दूसरा विघ्न आता है-भविष्य की ओर से । ध्यान-साधक ध्यान करने बैठता है । उसका मन भविष्य की सुखद कल्पनाओं से भर जाता है । वह सोचने लग जाता है कल क्या करना है ? भागे क्या करना है ? वह कल्पना में डूब जाता है कि वर्तमान हाथ से निकल जाता है । इस प्रकार दोनों ओर से—अतीत से भी और भविष्य से भी-कठिनाइयां आती हैं। और सापक भटक जाता है । वह खो जाता है अतीत की गहराइयों में या भविष्य की ऊंचाइयों में । इस स्थिति में ऋजुसूत्र नय का दृष्टिकोण यथार्थता प्रस्तुत करता है । वह केवल वर्तमान को पकड़कर चलता है। मैं समझता हूं कि यह दृष्टिकोण तत्त्व की दृष्टि से असत्य नहीं तो पूर्ण सत्य भी नहीं है। किन्तु साधना की दृष्टि से यह बहुत ही मूल्यवान सूत्र है। यह वर्तमानग्राही सूत्र है। वर्तमान में हम रहें-यही इसका मूल है।
वेदान्त ने भी अभेद के दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया है। वेदान्त का यह महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है । अभेद का दृष्टिकोण पूर्ण सत्य है, यह मैं नहीं कह सकता । सत्य है, यह कहा जा सकता है । साधना की दृष्टि से यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है । जहां अभेद की प्रतीति होती है वहां मैत्री, समता
और अहिंसा का पूर्ण विकास होता है । शुक्लध्यान के दो प्रकार हैं-पृथक्त्ववितर्क-सविचार और एकत्व-वितर्क-अविचार । जब हम भेद की भूमिका में रहते हैं, तब तक सविचार होता है । हमारा ध्यान बदलता रहता है, संक्रमण होता रहता है । जब हम अभेद की भूमिका में रहते हैं तब अविचार होता है । हमारा ध्यान अविचार होता है, वह बदलता नहीं । उसमें संक्रमण नहीं