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जैन परम्परा में ध्यान : एक ऐतिहासिक विश्लेषण
प्रत्येक अवयव में और अवयव के कण-कण में प्रवाहित करना और साथ-साथ उसका अनुभव करना तथा शरीर में होने वाले स्पंदनों को, संवेदनों को पकड़ना विपश्यना है ।
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• क्या भगवान् महावीर के समय में मुनि मंत्र-विद्या से अनभिज्ञ थे ?
चौदह पूर्वी में 'विद्या प्रवाद' नाम का एक पूर्व है । उसमें मंत्र और विद्या का विशद निरूपण है । चतुर्दश पूर्वधर मुनि मंत्र और विद्या के पारगामी होते थे । कुछ विशिष्ट मुनियों के लिए 'मंत्र-तंत्र विशारदा' विशेषण मिलता है । तात्पर्य यह है कि जो विशिष्ट ज्ञानी होते थे वे मंत्रों के ज्ञाता होते थे । सामान्य मुनियों के लिए मंत्रों का अधिकार नहीं था । विशेष परिस्थिति में कभी-कभी उसका उपयोग भी किया जाता था । मैंने जो कहा उसका आशय यह नहीं कि पहले जैन परम्परा में मंत्र विद्या का सर्वथा अभाव था । उसका तात्पर्य यह है - पहले मंत्र - साधना की बात गौण थी और अध्यात्म-साधना की बात मुख्य थी । किन्तु उत्तरवर्ती परम्परा में मंत्रसाधना की बात मुख्य हो गयी और अध्यात्म-साधना की बात गौण हो गयी ।
आचार्य हेमचंद्र अपने गुरु के पास गए और स्वर्णसिद्धि की विद्या की मांग की । गुरु ने कहा- - " बकरी का दूध तो हजम ही नहीं कर सकता और शेरनी का दूध हजम कर जाएगा ?" उन्होंने विद्या देना स्वीकार नहीं किया । कुछ विशिष्ट आचार्य थे । उनके पास विशिष्ट विद्याएं थीं । किन्तु वे जब सबके लिए हो गईं तब चमत्कार - प्रदर्शन का भाव बढ़ गया । इस परिवर्तन का प्रभाव अध्यात्म पर पड़ा और ध्यान-योग की विस्मृति होती गयी ।
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समन्तभद्र के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अनेक विद्याओं का प्रदर्शन किया। क्या यह सही है ?
मन्त्र और विद्या प्रयोग के दो प्रयोजन हैं— संघ की सुरक्षा और बड़प्पन की भावना | सिद्धसेन, समन्तभद्र, हरिभद्र आदि आचार्यों ने मन्त्र - विद्या का प्रयोग किया । उनके पीछे बड़प्पन की भावना प्रतीत नहीं होती । उन्होंने संघ के अस्तित्व को सुरक्षित करने के लिए वैसा किया, किन्तु उनके उत्तरकाल में बड़प्पन और चमत्कार -प्रदर्शन के लिए वैसा किया जाने लगा । उस स्थिति में अध्यात्म मुख्य नहीं रह सका ।
• लब्धि और मंत्र - साधना में क्या कोई अन्तर है ?
तपस्या के विधिवत् प्रयोग से विशिष्ट प्रकार की निर्जरा होती है। उससे लब्धियां प्राप्त होती हैं । मंत्र-विद्या की साधना किसी देव या देवी के जप