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महावीर की साधना का रहस्य
नहीं हैं, किन्तु सूक्ष्म प्राणायाम के पक्ष में हैं । उन्होंने पवन -रोध की स्थिति को ध्यान के लिए आवश्यक माना है ।' उन्होंने अपने अनुभव सूत्र में लिखा है कि मन का गतिरोध स्वयं हो जाता है, फिर उसके लिए रेचक, पूरक और कुम्भक का अभ्यास करने वाले की आवश्यकता नहीं रहती । चिरकालीन प्रयत्नों से स्थिर नहीं होने वाला प्राण मनोनिरोध की दशा में तत्काल निरुद्ध हो जाता है । इस प्रकार योगी उन्मूलित श्वास या श्वास - विहीन हो
श्वास के निरोध या मन्दीकरण की स्थिति जैन आचार्यों को निरन्तर मान्य रही है । 'पासनाहचरियं' में कुछ ध्यान सम्बन्धी गाथाएं उद्घृत हैं । उनमें ध्यान की प्रक्रिया बतलाई गई है । एक गाथा का आशय यह है- पर्यंक आसन, मन, वचन और शरीर की चेष्टा का निरोध, नासाग्र पर दृष्टि और श्वास - निश्वास का मन्दीकरण करने वाला ध्याता होता है ।"
सोमदेव सूरि ने ध्याता को सूक्ष्मप्राण होने का परामर्श दिया है । उन्होंने लिखा है - साधक मन्दगति से श्वास ले और छोड़े। न तो वायु को रोके और न शीघ्रता से छोड़े । उनके अनुसार जो प्राणायाम के प्रयोग में निपुण होता
१. प्राकृत द्वयाश्रय महाकाव्य ७।५७ :
सन्धिअकरणं, रूम्मिअपवणं, रुज्भियमणं अपडिएहि ।
झायव्यवाणमुणीहिं,
अरहंताणं
नमो
ताणं ॥
२. योगशास्त्र १२ : रेचकपूरककुम्भकरणाभ्यासक्रमं विनापि खलु । स्वयमेव नश्यति मरुत् विमनस्के सत्ययत्नेन ॥ ४४ ॥ चिरमाहितप्रयत्नैरपि धर्तु यो हि शक्यते नैव । सत्यमनस्के तिष्ठति ससमीरस्तत्क्षणादेव ||४५॥ मुक्त इव भाति योगी, समूलमुन्मूलितश्वासः ४६ ।। यो जाग्रदवस्थायां, स्वस्थः सुप्त इव तिष्ठति लयस्य । श्वासोच्छ्वासविहीनः स हीयते न खलु मुक्तिजुषः ॥ ४७ ॥
३. पासानाहचरियं, पृ० ३०४ :
पलियंकं बंधेजं, निरुद्धमणवयणकायवावारो । नासाग्गनिमियनयणो, मंदीकयसासनीसासो ॥