Book Title: Mahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Author(s): Mahapragya Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Tulsi Adhyatma Nidam Prakashan

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Page 317
________________ ३०४ महावीर को साधना का रहस्य वर्णित है। आचार्य अकलंक ने भी इसी वाक्य को उद्धृत किया है।' प्राणायु या प्राणावाय पूर्व के विषय-वर्णन से यह प्रमाणित होता है कि जैन आचार्य प्राणापान से पूर्ण परिचित थे । योग-निरोध की प्रक्रिया में आनापान निरोध की चर्चा से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है।' प्राणायाम की प्रक्रिया से परिचित होना और उसका प्रचलित होना एक बात नहीं है । क्या जैन-मुनियों में प्राणायाम की साधना प्रचलित थी? इस प्रश्न का उत्तर हकार की भाषा में दिया जा सकता है। इसकी पुष्टि के लिए महाप्राण-ध्यान प्रस्तुत किया जा रहा है । महाप्राण ध्यान ध्यान विचार में ध्यान मार्ग के चौबीस प्रकार बतलाए गए हैं। उनमें से पांचवां प्रकार कला और छठा प्रकार महाकला है । ये दोनों समाधि के प्रकार हैं। इनमें प्राण सूक्ष्म हो जाता है । कला में प्राण अपने आप चढ़ जाता है, किन्तु उसे उतारने के लिए दूसरे व्यक्ति का सहयोग लेना होता है । आचार्य पुष्यभूति ने महाप्राण का ध्यान प्रारम्भ किया। इस ध्यान में प्रवेश करते समय योग-निरोध (मन, वचन और शरीर का निरोध) किया जाता है। उसमें बाह्य संवेदन समाप्त हो जाता है। पुष्यमित्र नाम का शिष्य उनका सहयोग कर रहा था । अब हुश्रुत शिष्यों के दबाव के कारण पुष्यमित्र को समय से पहले ही आचार्य की समाधि का भंग करना पड़ा। उन्होंने आचार्य के पैर के अंगूठे का स्पर्श किया और उनकी कला जागृत हो गई। महाप्राण ध्यान को ध्यान संवर योग भी कहा जाता है । महाकाल में प्राण अपने आप चढ़ जाता है और अपने आप उतर जाता है। भद्रबाहु स्वामी ने महाप्राण १. षट्खण्डागम, खण्ड ४, भाग १, पुस्तक ६ पृ० २२३-२२४ : कायचिकित्साद्यष्टांग: आयुवदः भूतिकर्मजाङ्गलिप्रक्रमः प्राणापानविभागो यत्र विस्तरेण वणितस्तत् प्राणावायम् । अत्रोपयोगी गाहाउस्सासा उ अपाणा इंदियपाणा परोकम्मो प्राणा। एदेंसि पाणाणं वड्ढी हाणीओ वण्णेदि । २. राजवार्तिक ११२० । ३. उत्तराध्ययन २६७३ । ४. ध्यानविचार, नमस्कार स्वाध्याय, पृ० २२७ । ५. आवश्यक, हारिभद्रीया वृत्ति, पृ० ७२२ ।

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