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प्राणायाम : एक ऐतिहासिक विश्लेषण
उन्होंने प्राणायाम को ध्यान के लिए उपयोगी नहीं माना। शारीरिक दृष्टि से उसकी उपयोगिता मान्य की है ।' उपाध्याय यशोविजयजी ने लिखा है-'प्राणायाम आदि हठ योग का अभ्यास चित्त-निरोध और परम इन्द्रियगेय का निश्चित उपाय नहीं है। आगम-(आवश्यक नियुक्ति) निषिद्ध होने तथा योग समाधान का विघ्न होने के कारण उसका प्रायः निषेध किया गया है। आवश्यक सूत्र के अनुसार कायोत्सर्ग में उच्छ्वास और निःश्वास विहित है । नियुक्तिकार ने उस विधि का हेतु स्पष्ट किया है । उसका तात्पर्य यह है कि उच्छ्वास के निरोध से सद्योमरण हो सकता है, इसलिए उसका निरोध नहीं करना चाहिए। स्थानांग में अकाल-मृत्यु के सात कारण बतलाए गए हैं। उनमें एक कारण आन-प्राण का निरोध है । नियुक्तिकार ने उच्छ्वास के पूर्ण निरोध का निषेध किया है, किन्तु इससे समग्र प्राणायाम का निषेध प्राप्त नहीं होता। उन्होंने उच्छ्वास को सूक्ष्म करने का स्वयं उल्लेख किया है।
प्राणायाम के तीन अंग हैं—रेचक, पूरक और कुम्भक । उच्छ्वास-निरोध का सम्बन्ध केवल कुंभक से है । आवश्यक नियुक्तिकार को सामान्य कुम्भक का निषेध अभिप्रेत नहीं है। उन्हें दीर्घकालीन कुम्भक का निषेध अभिप्रेत है।
आचार्य हेमचन्द्र ने प्राणायाम को मानसिक विलुप्ति का हेतु माना है । उस पर योगवाशिष्ठ का प्रभाव परिलक्षित होता है ।" कायोत्सर्ग जैन साधना १. योगवृत्ति, पत्र ३४१ : न च प्राणायामो मुक्तिसाधने ध्याने उपयोगी, असौमनस्य कारित्वात्, यदाहु-'ऊसासं न निरूंभइ'-तथापि कायारोग्य कालज्ञानादी स उप
योगीत्यस्माभिरपीहोपदय॑ते । २. जैन दृष्ट्यापरीक्षितं पातंजलयोगदर्शनम् २।५५ : न च प्राणायामादि हठयोगाभ्यासश्चित्तनिरोधे परमेन्द्रियजये च निश्चित उपायोस्ति । 'ऊसासं ण णिरूं भइ' इत्याद्यागमेन योगसमाधानविघ्नत्वेन बहुलं तस्य निषिद्धत्वात् । ३. स्थानांग ७ ४. आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक नियुक्ति अवचूणि, गाथा १५२४ :
उस्सासं न निरूभइ, आभिग्गहिओवि किम् अ चिट्ठाउ ।
सज्जमरणं निरोहे सुहुमुस्सासं तु जयणाए ।। ५. योगवाशिष्ठ १०