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महावीर की साधना का रहस्य
गलाकर शुद्ध किया जाता है, वैसे ही तपस्या या ध्यान के द्वारा कर्मों की निर्जरा की जाती है, चैतन्य का शोधन किया जाता है। निर्जरा के द्वारा शारीरिक और मानसिक सभी दुःखों का शोधन होता है । मानसिक ग्रन्थियों और कर्म-संस्कारों का भी शोधन होता है। इस प्रक्रिया को आचार्य कुन्दकुन्द ने 'शुद्ध उपयोग' कहा है। इसे संवर भी कहा जा सकता है। शुद्ध चैतन्य का क्षण संवर का क्षण है। उससे नए कर्मों का बंध नहीं होता और पुराने कर्मों की निर्जरा होती है । कितनी मूल्यवान् है यह प्रक्रिया । किन्तु जब इसकी विस्मृति हुई तो इसके मूल्य की भी विस्मृति हो गई । ध्यान से जो शक्ति प्राप्त होती थी उसका कोई दुरुपयोग नहीं होता था । उसके दुरुपयोग की कोई संभावना ही नहीं होती थी। मंत्र-तंत्र से प्राप्त शक्ति का दुरुपयोग भी होने लगा, जैसे धन और सत्ता से प्राप्त शक्ति का दुरुपयोग होता है । मंत्र की आराधना करने वाले मुनियों में प्रमाद बढ़ा, आराम की मनोवृत्ति बढ़ी और सुख-सुविधावादी मनोभाव ने मुनित्व की दिशा बदल दी। जब मंत्र-शक्ति का अतिमात्रा में उपयोग होने लगा तब उसके उपयोग पर भी नियन्त्रण किया जाने लगा । इन शताब्दियों में उसका भी प्रायः लोपसा हो गया । ध्यान का रहस्य पहले ही हाथ से निकल गया था। इन दो. तीन शताब्दियों में मंत्र का रहस्य भी हाथ से निकल गया।।
आज मंत्र के ग्रंथ सुलभ हैं पर ध्यान के ग्रन्थ उतने सुलभ नहीं हैं। और जो हैं उनके हार्द को पकड़ना भी बहुत कठिन है। इसलिए ध्यान की मूल पद्धति की खोज एक महान प्रयत्न की अपेक्षा रखती है। • क्या ध्यान की परम्परा में दिगम्बर और श्वेताम्बर संघों में मतभेद रहा
__ सभी जैन संघों में धय॑ध्यान और शुक्लाध्यान की अभ्यास पद्धति रही है। उसमें कोई अन्तर दिखाई नहीं देता। उत्तरकालीन विकास-क्रम में हरिभद्र सूरी एक द्वीप की भांति अलग दीखते हैं। शेष सभी दिगम्बर और श्वे. ताम्बर आचार्यों का विकास-क्रम एक जैसा रहा है । • आपने विपश्यना को दर्धा की । वह क्या है ? उसे थोड़ा स्पष्ट कीजिए।
विपश्यना का अर्थ है-विशिष्ट प्रकार से देखना । ध्यानकाल में बाहर भी देखा जाता है और भीतर भी किसी वस्तु को एकाग्रतापूर्वक देखना विपश्यना है, वैसे ही अपने आपको देखना भी विपश्यना है। जैसे जल की धारा नहर में प्रवाहित होती है वैसे ही चैतन्य की धारा को समूचे शरीर में, शरीर के