Book Title: Mahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Author(s): Mahapragya Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Tulsi Adhyatma Nidam Prakashan

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Page 303
________________ २६० महावीर को साधना का रहस्य प्रचलित है । उसका नाम है विपश्यना ध्यान । उस पद्धति से ध्यान करने वाले गौरव का अनुभव करते हैं कि उन्होंने भगवान् बुद्ध की ध्यान की मौलिक "परम्परा को अक्षुण्ण रखा है । बौद्धों में ध्यान का बहुत विकास हुआ। उन्होंने उसकी अनेक पद्धतियां विकसित कीं । संभवत: विश्व में बौद्धों में ही ध्यान के आधार पर सम्प्रदाय बने । समूचे बौद्ध संघ को दो सम्प्रदाय में बांटा जा - सकता है - एक उपदेश शाखा और दूसरी ध्यान शाखा । ध्यान शाखा के अठाईसवें आचार्य बोधिधर्म ने चीन में जाकर ध्यान का प्रचार किया । सामान्यतः समझा जाता है कि बौद्ध धर्म प्रचार के द्वारा विश्व में फैला । किन्तु गहराई में जाने पर यह ज्ञात होगा कि बौद्ध धर्म का विकास जितना प्रचार के द्वारा नहीं हुआ, उतना ध्यान के द्वारा हुआ । जैन संघ में ध्यान की कोई स्वतन्त्र शाखा स्थापित नहीं हुई और ध्यान की जो मौलिक पद्धति थी उसका अभ्यास भी छूटता चला गया । इस पूरी सहस्त्राब्दी में कोई ऐसी घटना सुनने को नहीं मिलती कि किसी जैन मुनि ने आज्ञा-विचय और संस्थान-विचय के द्वारा वस्तु सत्य का साक्षात्कार किया हो, जबकि चमत्कार की अनेक घटनाएं सुनी जाती हैं-अमुक मुनि पादुकाओं द्वारा आकाश में उड़ गए; अमुक मुनि ने अमावस्या के दिन में भी पूर्ण चंद्रमा को दिखाकर पूर्णिमा स्थापित कर दी; अमुक मुनि ने मकान को एक स्थान से दूसरे स्थान पर संक्रामित कर दिया । इससे जाना जाता है कि मंत्र की साधना और विद्या की आराधना ने अध्यात्म योग के अभ्यास को गौण कर दिया । जब हम तत्काल लाभ पाना चाहते हैं, सरल मार्ग को खोजने लग जाते हैं तब आध्यात्मिक लाभ तथा आन्तरिक और गूढ़ पद्धतियों का मूल्य कम हो जाता है । और यही हुआ । अभी एक विदेशी ने यह जिज्ञासा की कि हम जैनों के ध्यान की मौलिक पद्धति का अध्ययन करना चाहते हैं । यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण जिज्ञासा है । हमें इस जिज्ञासा का उत्तर देना चाहिए और देने से पहले उसे खोजना चाहिए। अभी जो चल रहा है उसमें उत्तरकालीन स्वीकार अधिक है । मैं मानता हूं कि स्वीकार करना बुरी बात नहीं है । कोई अच्छी बात सामने आए उसे स्वीकार करने में कोई बुराई नहीं है । किन्तु बुरी बात यह हुई कि जो हमने स्वीकार किया उसका हमें बोध नहीं । कम-से-कम यह ज्ञान तो होना ही चाहिए कि यह स्वीकृत है; उधार लिया हुआ है । इसका स्रोत जैन परम्परा में नहीं है, किसी दूसरी परम्परा में है । और हमारी मौलिक

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