Book Title: Mahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Author(s): Mahapragya Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Tulsi Adhyatma Nidam Prakashan

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Page 294
________________ जैन परम्परा में ध्यान : एक ऐतिहासिक विश्लेषण २८१ दूसरे दार्शनिक से चर्चा करने लगा । अपने मत की स्थापना और दूसरे मत का खंडन होने लगा । गौतम ने अपने 'न्याय सूत्र' में स्पष्ट व्यवस्था की कि धर्म की सुरक्षा के लिए वाद, जल्प, वितंडा, छल- इन सबका प्रयोग किया जा सकता है । धर्म के क्षेत्र में वितंडा और छल को स्थान मिल गया । परस्पर शास्त्रार्थ होने लगे । जब शास्त्रार्थ मुख्य हो जाता है तब ध्यान की बात अपने आप गौण हो जाती है । इन सब स्थितियों ने कुछ मिलाकर जैन मुनियों को, जो बहुत निवृत्ति में थे, लोक-संग्रह से भी दूर रहते थे, अपना अधिकांश समय ध्यान और प्रतिसंलीनता में बिताते थे, संघ के विकास की ओर प्रवृत्त कर दिया । जैन संघ की रक्षा का प्रश्न उनके सामने मुख्य हो गया । एक ओर भद्रबाहु के साथ जाने वाले हजारों-हजारों मुनि पूर्वीय समुद्र के तट पर फैल गए । उन्होंने तमिलनाडु, केरल और आन्ध्र के प्रदेशों में जैन धर्म का प्रसार प्रारम्भ कर दिया । दूसरी ओर आचार्य महागिरि और सुहस्ती को उज्जैनी के शासक संप्रति का योग मिला और उस योग से जैन धर्म महाराष्ट्र के सुदूर अंचलों तक पहुंच गया । शक्ति का अर्जन और प्रदर्शन - ये दोनों प्रतिष्ठित हो गए । फलतः संघ को शक्ति सम्पन्न करने वाले आचार्यों की परम्परा चल पड़ी । आचार्य कालक, पादलिप्त आदि उसी परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं । मध्यकालीन घटनाओं से पता चलता है कि ध्यान का स्थान शास्त्रीय ज्ञान, विद्या और मंत्रों ने ले लिया । शक्ति का प्रयोग राजों के प्रतिबोध देने और चमत्कार प्रदर्शित करने में होने लगा । राजसभाओं में शास्त्रार्थ करना और प्रतिवादी को परास्त करना धर्म - विजय का मुख्य लक्षण हो गया । छेद सूत्रों में इन घटनाओं पर नियन्त्रण करने का प्रयत्न दृष्टिगत होता है । वह सफल नहीं हो सका । राज्याश्रय प्राप्त करने पर रायों की भावनाओं का आदर किए बिना नहीं रहा जा सकता । पादलिप्तसूरी का एक प्रसंग हैमथुरा का राजा मुरंड था । उसके सिर में भयंकर दर्द हो गया । वह औपधियों से शान्त नहीं हो रहा था । राजा ने आश्चर्य से कहा - 'महाराज ! आप ज्ञानी हैं, विद्याधर हैं । मेरे सिर में असह्य दर्द हो रहा है । कृपा कर उसे शान्त कर दें । उस समय पादलिप्त सूरी ने अपनी तर्जनी अंगुली से तीन बार अपने घुटने को थपथपाया । इधर घुटने पर तर्जनी अंगुली चली और उधर राजा का सिर-दर्द दूर हो गया । आचार्य प्रभाचंद्र ने लिखा है - ' पादलिप्त सूरी के नाम की गाथा मंत्र रूप है । उसका मंत्र की भांति पाठ करने पर

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