Book Title: Mahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Author(s): Mahapragya Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Tulsi Adhyatma Nidam Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 287
________________ २७४ महावीर की साधना का रहस्य ध्यान का निषेध करने वालों ने एक तर्क प्रस्तुत किया कि जिनका संहनन उत्तम (वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच और नाराच) होता है, वही ध्यान का अधिकारी है । इसका तात्पर्य है कि जिसकी अस्थि-रचना अत्यन्त सुदृढ़ होती है, वही ध्यान कर सकता है । साधारण अस्थि-रचना वाला ध्यान नहीं कर सकता । इस तर्क में कुछ सचाई भी है । अस्थियों की दृढ़ता के साथ शरीर की स्थिरता और मन की एकाग्रता का सम्बन्ध है । पर इसका यह अर्थ नहीं कि सामान्य अस्थि-रचना वाला ध्यान कर ही नहीं सकता। ध्यान को लेकर जैन संघ में दो धाराएं हो गईं। ध्यान का निषेध करने वालों ने कहा-वर्तमान काल में ध्यान नहीं हो सकता। ध्यान का समर्थन करने वालों ने कहाउत्तम संहनन के अभाव में शुक्ल ध्यान नहीं हो सकता किन्तु धर्म्यध्यान हो सकता है । यह ध्यान के निषेध और समर्थन की परम्परा आचार्य रामसेन (वि० ६-१० शताब्दी) तक चलती है। उन्होंने 'तत्त्वानुशासन' में आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों को दोहराया है ।' देवसेन ने भी 'तत्त्वसार' में इस विषय की चर्चा की है। ध्यान की पद्धति का अवरोध वीर निर्वाण की कुछ शताब्दियों बाद ही शुरू हो गया था। संघ-शक्ति के विकास की भावना ने बल पकड़ा । व्यवहार धर्म या तीर्थ धर्म की प्रमुखता बढ़ी और आध्यात्मिक शक्ति के विकास की प्रक्रिया मन्द हो गई। ध्यान की पद्धति गौण हो गई। ध्यान की अपेक्षा स्वाध्याय का मार्ग सरल है। उसके द्वारा अर्थात् शास्त्रीय ज्ञान के अभ्यास के द्वारा संघ को विस्तार मिलने लगा, तब ध्यान से सुदीर्घ अभ्यास और आंतरिक यात्रा में जाने का आकर्षण सहज ही कम हो गया। 'मनोनुशासनम्' की रचना के समय आचार्यश्री तुलसी ने मुझे कहा कि जिन आचार्यों ने विच्छेद की तालिका प्रस्तुत की उन्होंने एक बाधा अवश्य ही उपस्थित कर दी। उससे उत्तरवर्ती साधकों के मन में शिथिलता आ गई, निराशा का भाव बन गया । जो विच्छिन्न है, जो हो नहीं सकता, उसके लिए प्रयत्न क्यों किया जाए ? कैवल्य नहीं हो सकता, विशिष्ट उपलब्धियां नहीं १. तत्त्वानुशासन, ८२, ८३ : येऽप्राहुन हि कालोऽयं ध्यानस्य ध्यायतामिति । तेऽर्हन्मताऽनभिज्ञत्वं ख्यापयन्त्यात्मनः स्वयम् ॥ अत्रेदानीं निषेधन्ति शुक्लध्यामं जिनोत्तमाः । धर्म्यध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणिभ्यां प्राग्विवर्तिनाम ॥ २. तत्त्वसार १४ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322