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महावीर की साधना का रहस्य
आरम्भ स्थूल शरीर के दर्शन से करेंगे । प्रारम्भ में ही चैतन्य को पकड़ने की बात करेंगे तो पहुंच नहीं पायेंगे । वह हमारा औदारिक (भौतिक) शरीर प्रत्यक्ष है। इसे देखना आरम्भ करें। उसके एक-एक अवयव को देखें। ऊपरी भाग को देखें, मध्य भाग को देखें और अधो भाग को देखें । भगवान् महावीर ध्यान करते थे तब ऊर्ध्वलोक को देखते थे, अधो लोक को देखते थे और तिरछे लोक को देखते थे। यह ऊर्ध्व लोक क्या है ? नाभि के ऊपर का भाग ऊर्ध्व लोक है । यह अधोलोक क्या है ? नाभि के नीचे का भाग अधोलोक है। यह तिरछा लोक क्या है ? नाभि के आस-पास का भाग तिरछा लोक है। यह लोक-दर्शन या शरीर-दर्शन विपश्यना है। हम स्थूलशरीर में होने वाली घटनाओं, संवेदनाओं को देखें, उन पर ध्यान केन्द्रित करें तो वे घटनाएं प्रत्यक्ष होने लग जाती हैं, मन की जागरूकता बढ़ जाती है । हमारे आस-पास बहुत सारी घटनाएं घटित होती हैं, पर मन जागरूक नहीं होता है तो हमें उनका पता नहीं चलता। यदि हम थोड़ा-सा ध्यान केन्द्रित करें तो हमें पता चलेगा कि हमारे शरीर में कुछ ध्वनियां हो रही हैं। कहीं सुख का और कहीं दुःख का संवेदन हो रहा है। ये सब विपश्यना के द्वारा पकड़े जा सकते हैं।' स्थूल शरीर में घटित होने वाली घटनाओं को देखना विपश्यना है । पर यह उसकी सीमा नहीं है । स्थूल शरीर के भीतरी भाग, सूक्ष्म शरीर, मानसिक ग्रन्थियों, कर्म और वासनाओं को देखना भी विपश्यना है। कौन-सा कर्म उदय में आ रहा है, उसके द्वारा किस प्रकार की चेतना निर्मित हो रही है-यह सब विपश्यना के द्वारा देखा जा सकता है। स्थूल शरीर को देखना, सूक्ष्म शरीर को देखना, वासनाओं को देखना, विभिन्न रूप में उदय में आने वाली चित्तवृत्तियों को देखना, उनके हेतुओं को देखना और उन्हें देखते-देखते उनको पार कर शुद्ध चैतन्य तक पहुंच जाना—यह सारी की सारी पद्धति है विपश्यना की। ___'विपश्यना'-भीतर की ओर जाने की पद्धति है और 'विचय' द्रव्यों पर ध्यान केन्द्रित कर, उनके स्वरूप को जानने की पद्धति है। ___कायोत्सर्ग, भावना, विपश्यना और विचय-इन चार तत्त्वों के आधार पर समूची ध्यान की प्रक्रिया चलती थी। यह पद्धति धर्म्यध्यान और शुक्ल ध्यान-इन दो भागों में विभक्त थी। मुझे इस पद्धति की विशद चर्चा नहीं करनी है । मुझे केवल उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की समीक्षा करनी है । १. आयारो, २।१२५ : आयतचक्खू लोगविपस्सी ।