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जैन परम्परा में ध्यान : एक ऐतिहासिक विश्लेषण जाता है । लम्बे समय तक कायोत्सर्ग करने वाले कभी-कभी स्थूल शरीर से पृथक् होने का अनुभव करते हैं । कभी-कभी प्रतीत होता है कि वे शरीर को छोड़कर मुक्त आकाश में विचरण कर रहे हैं। शिथिलता के सघन होने पर सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर को छोड़ भी देता है । इस प्रकार की और भी घटनाएं घटित होती हैं।
दूसरा तत्त्व है-भावना। भावना के द्वारा ध्यान की योग्यता प्रत होती है । उसके चार प्रकार हैं-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य । इनका अभ्यास जितना पुष्ट होता है उतना ही ध्यान पुष्ट होता है।'
तीसरा तत्त्व है-विपश्यना। इसका अर्थ है-अपने-आपको देखना । भगवानन् महावीर ने बार-बार निर्देश दिया-'संपिक्खए अप्पगमप्पएणं'आत्मा से आत्मा को देखो। आचार्य कुन्दकुन्द ने शुद्ध चैतन्य को देखने की बात कही है। यह आत्मा को देखने की, शुद्ध चैतन्य को देखने की बात भगवान् महावीर के ध्यान की मौलिक पद्धति है। प्रश्न होता है-आत्मा को कैसे देखें ? वह अमूर्त है। आत्मा के दो अर्थ हैं-शरीर और चैतन्य । 'अप्पाणं वोसिरामि'-इसका अर्थ है-मैं आत्मा अर्थात् शरीर को छोड़ता हं । वेदों में आत्मा का अर्थ शरीर होता है। तो आत्मा का एक अर्थ है शरीर
और दूसरा अर्थ है चैतन्य । 'मात्मा को आत्मा से देखो'—इनमें ये दोनों अर्थ घटित हो सकते हैं । चैतन्य को देखना है, उसका अनुभव करना है, पर यह कैसे करें ? वहां तक कैसे पहुंचें ? स्थूल शरीर का भीतरी भाग हमें दिखाई नहीं देता । उसके भीतर सूक्ष्म शरीर है। वह भी हमें दिखाई नहीं देता। उसके भीतर चैतन्य है । उसका अनुभव फिर कैसे हो सकता है ? यह अनुभव की यात्रा स्थूल शरीर के दर्शन से प्रारम्भ की जाती है। आचार्य शुभचन्द्र ने इस ओर इंगित भी किया है। उन्होंने लिखा है—'लक्ष्य के सहारे अलक्ष्य तक, स्थूल के सहारे सूक्ष्म तक और सालम्बन के सहारे निरालम्बन तक पहुंचा जा सकता है। चैतन्य तक पहुंचना है, उसका अनुभव करना है, पर यात्रा का १. ध्यानशतक, ३० :
'पुव्वकयब्भासो भावणाहि झाणस्स जोग्गयमुवेइ ।
ताओ य नाणदंसण-चरित्तवेरग्गनियताओ॥' २. ज्ञानार्णव, ३३।४ :
अलक्ष्यं लक्ष्यसंबंधात्, स्थूलात् सूक्ष्मं विचिन्तयेत् । सालम्बाच्च निरालम्बं, तत्त्ववित् तत्त्वमञ्जसा ।