Book Title: Mahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Author(s): Mahapragya Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Tulsi Adhyatma Nidam Prakashan

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Page 288
________________ जैन परम्परा में ध्यान : एक ऐतिहासिक विश्लेषण २७५ हो सकतीं, तो फिर हम ध्यान किसलिए करें ? क्या हो सकता है और क्या नहीं हो सकता, इसकी चर्चा में उलझने वाले का प्रयत्न तीव्र नहीं हो सकता । जिसका जैसा प्रयत्न होता है, उसके वैसे हो जाता है । किन्तु जब हम मानकर चलते हैं कि यह नहीं हो सकता तो निश्चित ही हमारे सामने एक अवरोध उपस्थित हो जाता है । मुझे लगता है कि यह अवरोध ध्यान के मार्ग में आया । जब से विच्छेद की चर्चा शुरू हुई, निश्चय धर्म के स्थान पर व्यवहार धर्म का प्रभुत्व बढ़ा, आध्यात्मिक उत्क्रांति की अपेक्षा लोक-संग्रह को अधिक महत्त्व मिला, तब से जैन - शासन में ध्यान की धारा अवरुद्ध होकर बहने लगी । जिस जैन परम्परा ने ध्यान को पल्लवित और पुष्पित किया था, जिस - परम्परा के मुनियों ने श्रुतसागर के पारगामी होकर ध्यान के सूक्ष्म रहस्य उद्घाटित किए थे, वही परम्परा अपनी मौलिक सम्पदा से वंचित होने लग गई । इस विस्मृति के क्षणों में ही आचार्य रामसेन ने अपनी मानसिक वेदना इन शब्दों में व्यक्त की' - 'आज श्रुतसागर के पारगामी मुनि नहीं हैं तो -शुक्ल ध्यान नहीं हो सकता । उस शुक्लध्यान के लिए बहुत सूक्ष्म ध्यान की आवश्यकता होती है । क्या अल्पज्ञानी मुनि धर्म्यध्यान करने के योग्य भी नहीं है ? आज 'यथाख्यात' ( वीतराग ) चारित्र नहीं है तो क्या सामायिक चारित्र भी नहीं हो सकता ? क्या आज के तपस्वी यथाशक्ति चारित्र की आराधना नहीं कर सकते ?' आचार्य ने इस वेदना भरे शब्दों में यह कहने का प्रयत्न किया कि आज - ध्यान नहीं हो सकता'- - इस स्वर को बन्द कर ध्यान के विकास के लिए प्रयत्न करना चाहिए । उसका स्वर ठीक से सुना नहीं गया और क्रमश: ध्यान का मार्ग अवरुद्ध होता चला गया । ध्यान की मौलिक पद्धति हाथ से -छूट गई। • अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाएं और ज्ञान, चारित्र और वैराग्य भावनाएं क्या भिन्न हैं ? भावना का अर्थ भिन्न नहीं है । अभ्यासकाल भिन्न है । ज्ञान आदि भावना १. तत्त्वानुशासन, ८५, ८६ : ध्यातारश्चेन्न सन्त्यद्य, श्रुतसागरपारगाः । तत्किमल्प तैरन्यैर्न ध्यातव्यं स्वशक्तितः ॥ चरितारो न चेत्सन्ति, यथाख्यातस्य सम्प्रति । तत्किमन्ये यथाशक्ति, माऽऽचरन्तु तपस्विनः ॥

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