Book Title: Mahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Author(s): Mahapragya Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Tulsi Adhyatma Nidam Prakashan

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Page 290
________________ जैन परम्परा में ध्यान : एक ऐतिहासिक विश्लेषण २७७ चंचलता का निरोध। इसका अभ्यास किए बिना तृतीय ध्यान नहीं हो सकता । यह कायिक ध्यान कायोत्सर्ग है । विपश्यना मानसिक ध्यान है। कायोत्सर्ग के होने पर विपश्यना ध्यान हो सकता है। इस दृष्टि से इनमें पौवापर्य है। कायोत्सर्ग की स्थिति में स्थूल शरीर निस्पन्द हो जाता है। इस स्थिति में सूक्ष्म शरीर सक्रिय होता है । कायोत्सर्ग की साधना परिपक्व हो जाती है, स्थूल शरीर पर्याप्त मात्रा में शिथिल हो जाता है, तब कभी-कभी सूक्ष्म शरीर इस स्थूल शरीर को छोड़कर बाहर भी चला जाता है। वैसे क्षणों में भेद-विज्ञान की पहली किरण फूटती है । साधक को यह अनुभव होने लगता है कि इस स्थूल शरीर से भिन्न कोई सूक्ष्म अस्तित्व है जो इससे पृथक् हो रहा है । परामनोवैज्ञानिक अनेक घटनाओं के अध्ययन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि शिथिलता, मूर्छा, मादक औषधियों के प्रयोग-इन कुछ अवस्थाओं में सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से अलग हो जाता है । एक रोगी ऑपरेशन के टेबल पर सो रहा है। डॉक्टर ऑपरेशन के लिए खड़ा है। एक डॉक्टर ने चेतनाशून्य करने वाली औषधि का प्रयोग कर उसे संज्ञाहीन कर दिया। वह अचेत हो गया । डॉक्टर ऑपरेशन कर रहा है । रोगी का सूक्ष्म शरीर उस टेबल के ऊपर खड़ा है। वह ऑपरेशन को देख रहा है। कुछ समय बाद वह स्थूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। यह सारा Coma (सुषुप्ति) की स्थिति में घटित होता है। Fainting (मूर्छा) की स्थिति में घटित होता है। कभी-कभी स्वाभाविक नींद की स्थिति में भी ऐसा हो जाता है । लम्बा कायोत्सर्ग करते-करते ऐसी स्थिति आती है कि सूक्ष्म शरीर से अलग हो जाता है । इन क्षणों में यह धारणा निर्मित होती है कि शरीर अलग है, मैं अलग हं। यह रटा हुआ भेद-विज्ञान नहीं होता। यह उसका प्रत्यक्ष अनुभव होता है। आन्तरिक चेतना स्वयं प्रबुद्ध होकर कहती है'तुम कुछ और हो, शरीर कुछ और है।' विपश्यना ध्यान में इससे आगे की स्थिति का निर्माण होता है। विपश्यना काल में हम स्थूल शरीर के बाद तैजस शरीर का, उसके बाद कार्मण शरीर का, मानसिक ग्रन्थियों और संस्कारों का साक्षात् करते-करते आगे बढ़ते हैं तब शुद्ध चैतन्य शेष रह जाता है। शरीर के द्वारा होने वाली सारी प्रतिक्रियाएं समाप्त हो जाती हैं। यह भेद-विज्ञान का अग्रिम चरण है । इस प्रकार कायोत्सर्ग और विपश्यना में होने वाले भेद-विज्ञान में क्रमिक विकास का अन्तर है। • सूफी पद्धति में चक्राकार घमते-घमते ध्यान कराया जाता है। आपने

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