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चारित्र समाधि
प्राणायाम के तीन अंग हैं-पूरक, कुंभक और रेचक। दूसरे शब्दों में श्वास को भरना, रोकना और छोड़ना। आज मैं आध्यात्मिक प्राणायाम की चर्चा करूंगा। इसका सम्बन्ध श्वास से नहीं है। यह उत्कृष्ट प्राणायाम है। इसके दो ही अंग हैं-कुंभक और रेचक । इसमें पूरक की जरूरत नहीं है। पूरक की जरूरत तो तब हो जब भीतर नहीं हो और बाहर से कुछ लेना पड़े। जो चाहिए वह सब भीतर प्राप्त है, बाहर कुछ भी नहीं है। पर जो नहीं चाहिए वह भी भीतर जुड़ा हुआ है, उसका रेचन कर देना है। कुंभक करना है । केवल दो क्रियाएं करनी हैं रेचक और कुंभक । इस आध्यात्मिक प्राणायाम का नाम है चारित्र । चारित्र के दो ही काम हैं-खाली करना और निग्रह करना। महावीर की वाणी में-'एयं चयरित्तकरं चारितं होइ अहिया–जो भर रखा है, संचय कर रखा है, उसे खाली कर देना चारित्र है । संचय को बाहर फेंकना, ढेर को समाप्त कर देना चारित्र है। यह पहला काम है। उसका दूसरा काम है-निग्रह करना—'चरित्तेज निगिण्हाइ।' आध्यात्मिक प्राणायाम की केवल दो क्रियाएं है-कुंभक और रेचक । इन दोनों प्रक्रियाओं का संयुक्त नाम है-चारित्र । आध्यात्मिक प्राणायाम की बहुत सुन्दर प्रक्रिया है। क्योंकि कुंभक के बिना कोई काम नहीं चलता। कंभक है निग्रह की शक्ति । यदि हमारी निग्रह की शक्ति विकसित नहीं होती है तो हम कुछ नहीं कर सकते। कोरी निग्रह की शक्ति से भी काम नहीं बनेगा । निग्रह की शक्ति तो है, पर संचय को बाहर फेंकने की ताकत नहीं है, तो सफलता नहीं मिलेगी । अन्दरी सफाई होनी चाहिए और निग्रह भी होना चाहिए, जिससे कि दूसरा अन्दर आ न सके।
एक उपभोक्ता ने एक किलो चीनी खरीदी। दूसरे दिन उसने दुकानदार को एक नोट लिखा-'चीनी में कंकर इतने हैं कि चाय बनाई नहीं जा सकती और सड़क बनाने में वे कम पड़ते हैं।' यदि हमारे चैतन्य में इतने कंकर हों तो चैतन्य की चाय बनती नहीं है, उसमें मिठास नहीं आता । कूड़े-करकट को खाली करना अत्यन्त आवश्यक है।