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महावीर की साधना का रहस्य
कमी आयी है वह मूल के छूटने और अन्य के मिश्रण से आयी है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता । हम एक-एक अंश का विश्लेषण करें। पहले हम अभय को लें आज हमारा ऐसा संस्कार बन गया है कि हम सोचते हैंयदि अभय आ गया तो व्यवस्थाएं कैसे चलेंगी ? अभय आने पर व्यवस्थाएं टूट जाती हैं, नियंत्रण टूट जाता है । महावीर उल्टी बात करते हैं। वे कहते हैं—अभय हो तब ही अनुशासन चल सकता है, अन्यथा नहीं। आत्मा - का अनुशासन अभय में ही चल सकता है। पुलिस का अनुशासन भय में चल सकता है । आगे मत करो, पीछे चाहे जो कुछ हो—यह है पुलिस का अनुशासन । आत्मा का अनुशासन है—देखते हुए मत करो, पीछे तो करो : ही मत । परिषद् में मत करो, पर अकेले तो करो ही मत । बिलकुल उल्टा है ।' यह अनुशासन तब चल सकता है, जब पूर्णत: अभय हो । अभय के बिना यह चल नहीं सकता । किन्तु बहुत बार व्यवहार इतना हावी हो जाता है कि वास्तविकता धूमिल हो जाती है । साधु हों या श्रावक, सभी इसी भाषा में सोचते हैं कि अभय होने पर काम कैसे चलेगा। समूचे भारतीय चिंतन में अभय पर जितना बल महावीर ने दिया, उतना किसी ने नहीं दिया। उनकी साधना का प्रत्येक चरण अभय के लिए उठा। अभय के बिना वे एक पग भी नहीं चले । उनकी अहिंसा प्रारम्भ हुई अभय से। जहां अभय नहीं, वहां अहिंसा नहीं । जहां अभय नहीं, वहां सामायिक नहीं। जहां अभय नहीं वहां साधना है ही नहीं। अभय पर महावीर ने इतना बल दिया कि भय के साम्राज्य को झकझोर डाला । भय क्यों आता है ? भय इस बात की सूचना देता है कि अभी आत्मा में दुर्बलता है। यदि मैं मन में भय करता हूं तो इसलिए नहीं कि मुझे आचार्यजी का भय है। किन्तु यह भय मेरी आत्मा की दुर्बलता है, क्योंकि मेरे मन में वह आशंसा का भाव बना हुआ है कि यदि यह बात आचार्यजी तक चली गई तो मुझे जो मिलने वाला है, वह नहीं मिलेगा। मेरी पूजा-प्रतिष्ठा में अन्तर आ जाएगा । अपनी दुर्बलता पर ही भय खड़ा होता है । दूसरे का भय किसी को नहीं होता । दूसरे से मैं क्यों डरूं ? मैं उस व्यक्ति से डरता हूं जिससे मेरी आशंसा को सहारा मिलता है। जहांजहां से आशंसा को सहारा मिलता है, वहां-वहां से भय जाता है । यह भय अपनी ही आशंसा की दुर्बलता है । यह स्वयं के पराक्रम की दुर्बलता है, दूसरे व्यक्ति की नहीं। हमें यह मानना चाहिए कि साधना में जो तेजस्विता नहीं आती, उसका मूल कारण है कि हम अनाशंसा की साधना नहीं करते । यदि