________________
२५८
महावीर की साधना का रहस्य
प्रज्वलित करते हैं, वैसे-वैसे भयंकरता बढ़ती है। वह हमारे सामने आ खड़ी होती है । चय को खाली करने की बात सीधी नहीं है । इस साधना में इतने संघर्ष, इतने उतार-चढ़ाव, इतनी विकट परिस्थितियां सामने आती हैं कि साधक को सावधान और जागरूक होकर अपना मार्ग तय करना होता है । इसलिए उसे निग्रह की स्थिति में जाना पड़ता है, निग्रह की शक्ति को बढ़ाना पड़ता है । संघर्ष तो चल रहा है और यदि सुरक्षा की पंक्ति मजबूत न हो तो पराजय का मुंह देखना पड़ता है। युद्ध की व्यूह-रचना में सुरक्षा-पंक्ति का बहुत बड़ा महत्त्व है। निग्रह की शक्ति हमारी सुरक्षा पंक्ति है। इसके होने पर बाहर से कोई खतरा नहीं आ सकता । निग्रह और चय का रिक्तीकरणदोनों साथ-साथ चलते हैं। दूसरे शब्दों में कुंभक और रेचक के आधार पर चारित्र की समाधि खड़ी होती है।
चारित्र के सात अंग हैं । इनमें पहला अंग है अनाशंसा । जब तक हमारी आशंसा समाप्त नहीं होती, चारित्र जीवन में नहीं आता। मन में आशंसा है, अर्थात् आकांक्षा है, अभिलाषा है, तब तक चारित्र आ नहीं सकता। चारित्र में सबसे बड़ी बाधा है--जीवन की आशंसा । जीवन की आशंसा होने का अर्थ है-मौत का भय । आशंसा और भय-दो चीज नहीं हैं। आपको भय वहीं है जहां आपके मन में कोई आशंसा है । धन की आशंसा है इसलिए चोरी का या चोर का भय बना रहता है । यदि धन की आशंसा न हो तो चोर का भय कभी नहीं हो सकता । जब तक जीवन की आशंसा है तब तक मौत का भय नहीं मिट सकता। मौत का भय का मूल है जीने की आशंसा। जब तक भय है तब तक समता नहीं आ सकती, सामायिक नहीं आ सकता। महावीर ने कहा—'सामाइय माहु तस्स जं, जो अप्पाण भए ण बंसए'–सामायिक उसके हो सकता है जिसके मन में भय नहीं होता। भय और सामायिक-दोनों साथ नहीं चल सकते । जहां आशंसा होगी वहां भय होगा। अनाशंसा के बिना अभय नहीं आ सकता और अभय के बिना सामायिक नहीं हो सकता, समता नहीं हो सकती । चारित्र का पहला अंग है अनाशंसा, दूसरा है अभय और तीसरा है समता । ये तीनों बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । साधना के लिए ये इतने बहुत महत्त्वपूर्ण हैं कि आध्यात्मिक साधना करने वाला कोई भी व्यक्ति यदि आशंसा और भय से मुक्त नहीं हैं तो वह हमेशा विषम स्थिति में रहेगा, समता का वही स्पर्श कर पायेगा। उसके लिए चारित्र सम्भव नहीं होगा। चारित्र का आदि-बिंदु है समता और समता की पृष्ठभूमि में है अनाशंसा, तथा इसके