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ज्ञान समाधि
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शास्त्र में जो लिखा वह तो सत्य है और शेष असत्य । ज्ञान में जो बाधा आ रही है । साम्प्रदायिक अभिनिवेश ज्ञान का बाधक है । सत्य-शोधक के सामने यह प्रश्न नहीं होता कि किस ग्रन्थ में लिखा है । वह यह देखेगा कि यह अनुभव की कसौटी पर खरा उतरा है, वह सत्य है। फिर चाहे वह सिद्धान्त की बात हो या रसायनशास्त्र की बात हो, वनस्पतिशास्त्र की बात हो या अन्य कोई भी। चाहे नास्तिक दर्शन की बात भी क्यों न हो, उसके प्रति भी हमारी वही सत्यग्राही दृष्टि रहेगी। • ज्ञान समाधि और केवल ज्ञान से क्या अन्तर है ?
केवल ज्ञान तो परिणाम है । ज्ञान होना भी परिणाम है। ज्ञान समाधि का अर्थ है ज्ञान ही रहने देना, संवेदन नहीं बनाना । • क्या ज्ञानयोगी वही होगा जो किसी ग्रंथ को पूर्ण सत्य न माने ?
कोई भी ग्रन्थ पूर्ण सत्य का प्रतिपादक नहीं होता । वह सत्य के कुछेक पर्यायों का प्रतिपादक होता है। भाषा में कुछेक पर्याय ही उतरते हैं, अनंत पर्यायों में से कुछेक । भाषा में इतनी शक्ति भी नहीं है कि वह सब पर्यायों को कह सके । 'अ' अक्षर के अनन्त पर्याय हैं। वाणी में हजार भी नहीं उतरते । पूर्णता की बात ही कहां है। • क्या संकल्प-विकल्प को रोकना ही समाधि है ? समाधि, एकाग्रता और ध्यान में क्या अन्तर है ?
केवल संकल्प-विकल्प को रोके और ध्येय का बोध न रहे तो जागृत समाधि नहीं हो सकती। ध्येय-शून्य संकल्प-विकल्प का निरोध है शून्य समाधि । संकल्प-विकल्प की शून्यता और ध्येय की शून्यता—दोनों एक नहीं हैं । समाधि में संकल्प-विकल्प की शून्यता है पर ध्येय की शून्यता नहीं है । समाधि के प्रकर्ष में ध्येय का रूपान्तरण हो जाता है। दृष्टि, दृष्टा और दर्शन; ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय; ध्याता, ध्यान और ध्येय-इनमें से प्रत्येक त्रिक एकात्मक बन जाता है । इसे उदाहरण के द्वारा समझे । आत्मा ध्येय है। मैं उसका साक्षात् करना चाहता हूं। मैं दृष्टा हूं। आत्मा दृश्य है। मेरी दर्शन की अपनी प्रक्रिया है । एकाग्रता के द्वारा आत्मा को देखू—यह है मेरा दर्शन । द्रष्टा, दृश्य और दर्शन-ये तीनों बराबर चल रहे हैं। मैं उस बिन्दु पर पहुंच जाऊं कि जहां आत्मा का साक्षात्कार हो जाए, फिर न ध्येय रहा और न ध्यान रहा । दोनों समाप्त हो गए, ध्येय, ध्याता और ध्यान-सब एक हो गए। एकाग्रता साधन है । वह ध्यान में भी होती है और समाधि में