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तप समाधि
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ये मानसिक विकास के अमुक स्तर पर आने के बाद, स्वभाव में परिवर्तन होने के बाद, रूपान्तरण के बाद सहज होने वाली क्रियाएं हैं, घटनाएं हैं । इसलिए इन्हें आन्तरिक तप की श्र ेणी में रखा गया है ।
इस प्रकार बाह्य और आन्तरिक तप साधना के महत्त्वपूर्ण अंग हैं । एक तो बाहर से भीतर की ओर ले जाने का प्रवेशद्वार खोल देता है और दूसरा भीतर ले जाकर, सारी समस्याएं सुलझाकर, हमें समाधि तक ले जाता है । इन दोनों का स्पष्ट बोध किया जाए तो साधना में नए उन्मेष आ सकते हैं । • क्या देखा-देखी तपस्याएं करना बालसप है ?
नहीं, सारा बालतप नहीं है । व्यवहार के स्तर पर जो चलता है, वह व्यवहार की बात होती है । फिर भी हमें ठीक समझ लेना चाहिए । सारा तप बालतप नहीं होता । प्रायः लोग जो उपवास आदि तपस्याएं करते हैं, वे विशुद्ध भावना से ही करते हैं, आत्मशुद्धि के लिए ही करते हैं । वे चाहे 'आत्मशुद्धि' की बात को दोहराएं या नहीं, यह अलग प्रश्न है, किन्तु वे करते इसीलिए हैं । कहीं-कहीं तप दिखावे के लिए भी किया जाता है, यह अच्छी बात नहीं है ।
• तपस्या से तेजस शरीर क्षीण होता है या तेजस्वी ?
यह तो मानदंड की बात है । मानदंडों को हमने ही निश्चित किया है । किन कारणों से कर्म शरीर पुष्ट होता है और किन कारणों से क्षीण होता है, कर्मशास्त्र की सारी की सारी प्रक्रिया इसी आधार पर चलती है । जिन्हें हम कर्म -बन्ध के हेतु मानते हैं, वे कर्म शरीर को पुष्ट करने वाले तथ्य हैं । - अच्छा होता कि जैन मनीषी कर्मशास्त्र का योगशास्त्रीय और मानसशास्त्रीय अध्ययन करते । इस अध्ययन से अनेक नए तथ्यों का उद्घाटन हो सकता है। और इस नई पद्धति का आविष्कार कर सकते हैं । समझ लीजिए कि वर्त मान में अमुक व्यक्ति के ज्ञानावरण कर्म की अमुक प्रकृति का उदय है तो उसे अमुक प्रकार की साधना करनी होगी और यदि किसी दूसरे कर्म की दूसरी प्रकृति का उदय है तो उसे भिन्न प्रकार की अमुक कर्म के लिए अमुक साधना । यह उस कर्म की चिकित्सा पद्धति है । शरीर और मन की जितनी बीमारियां, उतनी ही तपस्या की पद्धतियां । आचार्यों ने मंत्रों का आविष्कार किया और विधान बनाए कि अमुक प्रकार की मंत्र सिद्धि के लिए तेला करो, बेला करो, उपवास करो, आचाम्ल करो, आदि-आदि। उन्होंने एक-एक कर्म के उपशमन के लिए, मंत्रों के साथ
साधना करनी होगी ।