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तप समाधि
२४१ तो है नहीं । मुर्गे के अभाव में सूरज भी नहीं निकलता होगा।' ____ यह भी एक अहं है । अहं के कारण ही आदमी की दृष्टि गलत होती है, भ्रांत होती है और वह तब सत्य को देख ही नहीं पाता। अहं हमारे ज्ञान में बाधक बनता है, हमारे दर्शन में बाधक बनता है और हमारे चारित्र मेंआचरण में बाधक बनता है । अहं मन की पवित्रता में बाधक बनता है । अहं वाणी की पवित्रता में बाधक बनता है। अहं शरीर की ऋजुता में, पवित्रता में बाधक बनता है । अहं शिष्टाचार में बाधक बनता है । सातों प्रकार में वह बाधक बनता है, इसलिए विनय के सात प्रकार किए गए हैं। यदि अहं के स्वभाव में परिवर्तन नहीं होता, अहं की गांठ नहीं खुलती है तो ज्ञान, दर्शन तथा आचरण की पवित्रता और मन, वाणी तथा शरीर की पवित्रता प्राप्त नहीं होती। समाज शिष्टाचार से भी वंचित हो जाता है। यदि हम इस भूमिका को भी न निभा सकें तो अगली भूमिकाओं की बात ही क्या ? जिस व्यक्ति में स्वभाव परिवर्तित हो जाता है वह व्यक्ति अहं की गांठ को खोलता है । यह आंतरिक परिवर्तन है, बाह्य नहीं। अहं-विसर्जन किए बिना कोई भी व्यक्ति विनय नहीं कर सकता। हमारी अन्तर् साधना का दूसरा क्रम हैअहं का विसर्जन। ___अन्तर् साधना के क्रम में पहला है प्रायश्चित्त अर्थात् संस्कारों की ग्रंथियों को खोलने के लिए ऋजुता का संपादन, ऋजुता की साधना, चित्त को निर्मल करने की साधना और दूसरा है विनय-अहं के विसर्जन की साधना । तीसरा है वैयावृत्त्य है। वैयावृत्य
इसका अर्थ है-सेवा । यह समझने में कठिनाई होती है कि सेवा अन्ततप क्यों है ? मैं यदि आपका काम कर देता हूं तो यह आंतरिक तप क्या है? . यह तो व्यवहार मात्र है । यह तो परस्पर का व्यवहार है । इसका आंतरिकता क्या है यह बहुत बड़ा प्रश्न है किन्तु जब हम गहरे में डुबकियां लेंगे तो ज्ञात होगा कि महावीर के दर्शन को यदि हम सेवा के संदर्भ में देखें तो पता चलेगा कि सेवा का अर्थ काम कर देना नहीं है । किसी के काम में व्यावृत्त होना या व्यापार करना ही सेवा नहीं है । सेवा का और ही कुछ रहस्य है । वह रहस्य है-तादात्म्य की स्थापना करना । समग्रता की अनुभूति का प्रयोग है सेवा । दूसरे व्यक्ति के साथ इतना तादात्म्य कर लेना कि उसका दुःख और मेरा . दुःख, कोई दो चीज न रहे, दोनों एक हो जाएं। उसकी अपेक्षा और मेरी