Book Title: Mahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Author(s): Mahapragya Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Tulsi Adhyatma Nidam Prakashan

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Page 255
________________ २४२ महावीर की साधना का रहस्य अपेक्षा दो न रहे। यह जो तादात्म्य की अनुभूति है, समत्व की अनुभूति है, एकत्व की अनुभूति है, यह है सेवा । काम करना और करवाना व्यवहार मात्र है। यह अन्तर् तप कैसे हो सकता है ? अन्तर् तप उसमें है कि सेवा करने वाला व्यक्ति इतना बदल जाता है, उसमें इतनी करुणा आ जाती है, अहं का इतना विसर्जन हो जाता है कि वह यह कभी नहीं मानता कि यह शरीर मेरा है और वह उसका । वह यह कभी नहीं मानता कि यह जरूरत उसकी है और यह मेरी । अभिन्नता की बात सेवा है। जैन वाङमय में इस अभिन्नता का प्रतिपादन स्थान-स्थान पर हुआ है। एक आचार्य कहते हैं—'एक्कम्मि हीलियम्मि सव्वे ते हीलिया हुंति'-यदि तुम एक साधु की अवज्ञा करते हो तो समूचे साधु-संघ की अवज्ञा करते हो ।' एक्कम्मि आराहियम्मि सव्वे ते आराहिया हुति'-यदि तुम एक साधु का सम्मान करते हो तो समूचे साधु-संघ का सम्मान करते हो। इसका मतलब बहुत गहरा है । एक साधु है। वह व्यक्ति नहीं है। वह उस साधुत्व से जुड़ा हुआ है जिस साधुत्व से शेष सब साधु जुड़े हुए हैं। यह अवज्ञा साधुत्व की अवज्ञा है । यह पूजा साधुत्व की पूजा है । किसी व्यक्ति की अवज्ञा नहीं, किसी व्यक्ति की पूजा नहीं। इस संदर्भ में जब सेवा की बात देखते हैं तब यह स्पष्ट हो जाता है कि एक साधु की जो अपेक्षा है, वह साधुत्व की अपेक्षा है। एक साधु का शरीर है, वह साधुत्व का शरीर है, संयम का शरीर है, न कि किसी व्यक्ति विशेष का। इसलिए जो एकत्व और समत्व की भावना है, जो तादात्म्य की अनुभूति है, वह है वास्तविक सेवा । इसीलिए यह आंतरिक तप है। इसमें आंतरिकता की बहुत जरूरत है। जैसे अहं की ग्रन्थि टूटे बिना विनय नहीं होता, वैसे ही ममत्व की प्रन्थि टूटे बिना सेवा नहीं होती। जब मेरे मन में भेद बना रहेगा तब मैं यह सोचूंगा कि मैं मेरे लिए काम कर दूं, दूसरे की क्यों चिंता करूं। वे अपनी जानें।' यह ममत्व की ग्रन्थि भेद डाल रही है-यह तुम्हारा, यह मेरा। ऐसी स्थिति में मैं अपनी सुविधा की बात सोचूंगा । स्वार्थ की बात सोचूंगा। स्वार्थ मानसिक भूमिका पर पनपने वाला एक दोष है। योग के आचार्यों ने यह माना है कि जब तक स्वार्थ की बात नहीं टूटती, स्वार्थ की भावना नहीं छूटती, तब तक मनोमयकोष का विकास नहीं होता। व्यक्ति में परमार्थ की बात ही तब आती है जब मनोमयकोष का विकास होता है । साधना के द्वारा जब यह कोष विकसित होता है तब व्यक्ति इस भाषा में नहीं सोचता कि यह मेरा है यह उसका है। वह सर्वत्र अपनत्व की दृष्टि से देखने लगता है। जब अपनत्व की दृष्टि का विकास होता है तब

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