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महावीर की साधना का रहस्य
भी होती है । जैसे धारणा का प्रकर्ष ध्यान है वैसे ही ध्यान का प्रकर्ष समाधि की एकाग्रता ध्यान की एकाग्रता से बहुत प्रकृष्ट होती है । • द्रष्टा का स्वरूप क्या है
?
द्रष्टा का शब्दार्थ है— देखने वाला । चेतना शुद्ध हो, उसमें कोई विकल्प न हो, भूमिका का नाम द्रष्टा है । इस भूमिका में केवल चैतन्य का प्रवाह होता है । दूसरा कोई नाला उसमें नहीं मिलता । न प्रियता और न अप्रियता का भाव । न राग और न द्वेष का मनोभाव । न संवेदन और न प्रतिक्रिया । चैतन्य और केवल चैतन्य । इसे कुछ साधकों ने साक्षीभाव कहा है और कुछ शुद्ध उपयोग कहा है ।
• चैतन्य को केन्द्रित करो, चित्त को केन्द्रित करो या मन को केन्द्रित करोतीनों एक हैं या भिन्न-भिन्न ?
चैतन्य व्यापक है । चित्त उससे छोटा है और उससे छोटा है मन । चित्त (बुद्धि) स्थायी तत्त्व है । मन उत्पन्न होता है और नष्ट होता है । फिर उत्पन्न होता है और नष्ट होता है । जब हम कहते हैं— चैतन्य को केन्द्रित करो तो उसका अर्थ है चैतन्य की धारा को कषाय की ओर प्रवाहित करो । जब हम कहते हैं - चित्त को केन्द्रित करो तो उसका अर्थ है चित्त की निर्णयात्मक शक्ति को आत्मा में विलीन करो । जब हम कहते हैं— मन को केन्द्रित करो तो उसका अर्थ है संकल्प - विकल्प का विरोध करना ।