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महावीर की साधना का रहस्य
तब करते हैं जब माया नहीं होती । प्रायश्चित्त और माया-दोनों एक साथ नहीं रह सकते । जब मानसिक परिवर्तन होगा, स्वभाव बदलेगा तब ही प्रायश्चित्त किया जा सकता है, अन्यथा नहीं। प्रायश्चित्त भीतरी तप है, अन्तर् तप है । उपवास करना सरल है । उपवास किया जा सकता है किन्तु माया के स्वभाव को बदले बिना प्रायश्चित्त नहीं किया जा सकता। पूरी ऋजुता तब जब तक नहीं आती, प्रायश्चित्त नहीं होता । प्रायश्चित्त अन्तर् तप है। क्यों है-यह प्रश्न है । वह अन्तर् तप इसलिए है कि यह सारी क्रिया मानसिक स्तर पर या मनोमयकोष के स्तर पर घटित होती है । इसका शरीर से कोई संबंध नहीं है । जब मन की इतनी योग्यता बढ़ जाती है, मन इतना बदल जाता है, स्वभाव इतना बदल जाता है कि छुपाव की गांठे खुल जाती हैं, ग्रंथि-मोक्ष हो जाता है, ऋजुता आ जाती है, तब प्रायश्चित्त का भाव उदित होता है । यह केवल मन से घटित होने वाली घटना है । प्रायश्चित्त का अर्थ ही है—बदलने की प्रक्रिया ।
प्रायश्चित्त का अर्थ पश्चात्ताप नहीं है । सामान्यतः प्रायश्चित्त का अर्थ पश्चात्ताप ही किया जाता है, किन्तु प्रायश्चित्त और पश्चात्ताप में कोई तालमेल नहीं है। प्रायश्चित्त का अर्थ है-चित्त का शोधन (चित्तस्य शोधनं प्रायश्चित्तम्) । प्रायश्चित्त दो शब्दों से बना है-'प्रायः' और 'चित्त' । 'प्रायः' का अर्थ-शोधन और 'चित्त' का अर्थ है-चित्त, मन । जिससे चित्त का शोधन होता है, उस प्रक्रिया का नाम है-प्रायश्चित्त । पश्चाताप तो बहुत छोटी-सी बात है। हर आदमी पश्चात्ताप करता है। सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी पश्चाताप करता है। विदेशी लोग छोटीसी भूल पर 'सॉरी' (Sorry) कह देते हैं । यह पश्चात्ताप है, प्रायश्चित्त नहीं। यह सभ्यता और शिष्टता के स्तर पर चलती हैं । यह शोधन की प्रक्रिया नहीं है।
प्रायश्चित्त मन को निर्मल बनाने की प्रक्रिया है, रूपान्तर की प्रक्रिया है । जो व्यक्ति आलोचन करता है अपने दोषों की, वह अपनी सारी की सारी भूलें सामने रख देता है। व्यक्ति प्रवृत्ति करता है, उसकी गांठें बनती चली जाती हैं । इस प्रकार हमारे भीतर संस्कारों की असंख्य गांठे हैं। प्रतिक्रमण उन गांठों को खोलने की प्रक्रिया है। प्रतिक्रमण में उन गांठों को खोलने का प्रयत्न होता है।
आज की मनोवैज्ञानिक चिकित्सा की प्रक्रिया और प्रायश्चित्त की प्रक्रिया