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महावीर की साधना का रहस्य
शब्द हो सकता है 'शिक्षक' । गुरु शब्द नहीं रह सकता। इसका परिणाम निश्चत ही यह आयेगा कि कोई व्यक्ति किसी को सुनना पसन्द ही नहीं करेगा । मेरे मन में आए वह मैं करूं और आपके मन में आए वह आप करें। आप मुझे नहीं कह सकते और मैं आपको नहीं कह सकता। आप मुझे कहेंगे तो मैं आपका विरोध या प्रतिरोध करूंगा । और मैं आपको कहूंगा तो आप मेरा विरोध या प्रतिरोध करेंगे । सब अपने-आप में ज्ञानी हैं । दूसरे की बात सुनने के लिए कोई तैयार नहीं है। यह स्थिति अहं की प्रबलता में आती है । जिस समाज में अहं की प्रबलता होती है, जिस संगठन में अहं को छूट मिल जाती है, वहां निश्चित ही संघर्षण होता है, टकराव होता है। दोनों के अहं परस्पर टकराते हैं फिर चिनगारियां निकलती हैं और समाधि की बात समाप्त हो जाती है । जहां चित्त को समाहित करने की बात है वहां संघर्षण को समाप्त करना होता है। इसको समाप्त करने के लिए या तो अहं को सीमित करना होता है या अहं को विसर्जित करना होता है । साधक के लिए यह बहुत निश्चित बात है। उसे अहं का विसर्जन करना ही होता है । वैसा किए बिना वह आगे नहीं बढ़ सकता। एक बात और है । साधु के लिए अहं के फैलाव का जितना खतरा है, दूसरे के लिए उतना नहीं। बहुत बड़ा खतरा है। क्योंकि जिसे सहज पूजा प्राप्त है उसे अहं का बड़ा खतरा है । साधु बनते ही पूजा प्राप्त होने लग जाती है । उस स्थिति में कोई बहुत सावधान या जागरूक होता है तो वह इस खतरे से बच सकता है अन्यथा वह इसमें इतना बह जाता है, उसमें बड़प्पन के भाव आ जाते हैं और साथ-साथ अन्य चीजें भी । महावीर ने एक शब्द दिया है—'लाघव' । इसका अर्थ है-हल्का होना । साधु को हल्का होना चाहिए। किन्तु गुरुता की बात इतनी अन्दर पैठ जाती है कि बड़ी उलझन पैदा हो जाती है। इस खतरे से बचने के लिए हमें दो दिशाओं में ज्ञान करना होगा
१. चेतना के स्तर पर कुछ प्रयोग । २. शारीरिक स्तर पर कुछ प्रयोग ।
चेतना के स्तर पर तो निरन्तर लघुता का अनुभव करना होगा। महावीर ने कितनी सूक्ष्मता से कहा था कि पानी लाने वाली एक घटदासी भी साधु को हितकर बात कहे तो उसके प्रति भी आक्रोश प्रकट न करे। यह न कहे कि 'मैं साधु हूं और तू पानी लाने वाली एक दासी। मुझे सीख देने आयी है ?' ऐसा कभी न कहे । किन्तु हितकर और अच्छी बात हो तो उसे सम्यक्