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विनय समाधि
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होता, और तर्क से ही सारा काम किया जाता और मन में भराव होता तो चिन्तन होता कि मैंने कौन-सा अपराध कर लिया जो इस आले में मुझे बिठाया जा रहा है । जयाचार्य चले गए । साध्वी वहीं बैठी रहीं । मन भरा हुआ होता तो सोचती - 'अच्छा, गुरुजी चले गए । मैं भी उठकर चली जाऊं ।' उसने ऐसा नहीं किया । भोजन का समय हुआ । जयाचार्य भोजन करने बैठे । साध्वी नहीं आयी । सोचा, कहीं इधर-उधर अध्ययन कर रही होगी । कुछ समय बीता । फिर याद आया, ध्यान गया, कहीं वहीं आले में तो नहीं बैठी है ? जांच कराई । वह उसी आले में प्रतिमा की भांति निश्चल बैठी थी । उसे बुलाकर पूछा - 'उसी आले में बैठी रही ?' 'हां, आपका आदेश यही तो था । आपने कब कहा कि अमुक समय के बाद आ जाना ।'
हमें लगेगा कि यह तो यान्त्रिक जीवन जैसा हो गया । हमारे पास तर्क है इसलिए लगता है कि यह तो यान्त्रिक है । एक समझदार आदमी भला यान्त्रिक जीवन कैसे जी सकता है ? यह तर्क व्यवहार में चलता है । यह तर्क ही कठिनाई पैदा करता है । साधक तो इतना खाली हो जाता है कि उसके मन में तर्क रहता ही नहीं, कभी उठता नहीं । वह तर्क-शून्य हो जाता है या दूसरे शब्दों में वह अहं शून्य हो जाता है । इस अहं शून्यता की स्थिति में से ही वह निकलता है जो भरे हुए में से नहीं निकलता । कभी नहीं निकलता । इसी स्थिति को लक्षित कर भगवान् महावीर ने कहा था- इंगित को देखो, आकार को देखो | इंगित और आकार में सम्पन्न बनो - 'इंगियागारसम्पन्ने । * यह बहुत बड़ा सूत्र है विनय का । किन्तु कहे उसे ही नहीं, किन्तु इंगित को भी समभो । जो गुरु है, मार्गदर्शक है, उसका इशारा क्या है ! आकार क्या है, उसे समझो | इंगित और आकार से सम्पन्न बनो । खाली होने की यह पराकाष्ठा है, चरम सीमा है । इतना खाली हो जाना कि जैसा इंगित और आकार हो वैसा ही बन जाना है ।
वर्तमान के चिन्तन में इसको मूल्य नहीं दिया जा सकता और मूल्य न देने का ही परिणाम है अनुशासनहीनता । आज यह बढ़ गयी । क्यों ? इसकी खोज होनी चाहिए। इसका कारण यह है कि हमने स्वतंत्र चिन्तन के बहाने या स्वतन्त्रता के बहाने बोलने, विचारने या सोचने की स्वतन्त्रा के बहाने अपने अहं को इतना प्रबल बना दिया, अपने आपको इतना भर लिया कि उसमें अब दूसरे को अवकाश ही नहीं है । मार्गदर्शक, पथ - दर्शक या गुरु के लिए भी अवकाश नहीं है । 'गुरु' जैसा शब्द ही समाप्त हो गया । आज का