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विनय समाधि
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४. अपने मन को आग्रह से मुक्त रखना। 'अनुशासन को सुनना', यह बहुत ही कठिन कर्म है । कोई दूसरे के अनुशासन को सुनना नहीं चाहता । एक पिता था। उसके आठ-दस वर्ष का एक लड़का था । पिता ने कहा-'बेटे ! ऐसे करना है ।' बच्चे ने कहा-'मैं स्वयं समझता हैं। आप क्यों कहते हैं ? मैं स्वयं कर दंगा।' छोटा बच्चा भी नहीं चाहता कि कोई उसे कुछ कहे । जैसे ही दूसरा उसे कुछ कहता है, उसके अहं पर चोट होती है। वह सोचता है-यह कहने वाला कौन ? मैं स्वयं कर सकता हूं, फिर दूसरा मुझे क्यों कहता है ? बात ही बात से असमाधि पैदा होती है, मानसिक दुविधा बढ़ती है। यह स्थिति बड़े-बड़े साधकों तक भी चली जाती है। और उन साधकों में जिन्होंने अहं का विसर्जन करना नहीं सीखा । वह मुझे कहने वाला कौन ? वह मुझे क्यों कहता है ? इसका मतलब यह है कि वह अधिक समझदार है और मैं कम समझदार हूं।' ऐसे चिन्तन में दोनों का अहं टकराता है। कोई किसी का अनुशासन सुनना नहीं चाहता । यह पहली असमाधि है।
दूसरी बात यह है कि किसी ने कहा और सुनने वाला संकोचवश बोला नहीं, सुन लिया। नहीं चाहता सुनना, फिर भी सुन लिया। सम्यक् स्वीकार नहीं किया। कहने वाले बड़े हैं, बुजुर्ग हैं, कहने दो उन्हें । नहीं बोलेंगे, उत्तर नहीं देंगे। अपने को करना तो है नहीं। बस समाप्त । कथन को सम्यक् स्वीकार नहीं करना यह दूसरी बेचैनी मन में पैदा हो जाती है। उधर से कहा जाता रहेगा और इधर से उसे अस्वीकार करना जारी रहेगा तो असमाधि पैदा होगी, कहने वाले के मन में भी और सुनने वाले के मन में भी।
तीसरी बात है-वचन की आराधना, वचन का पालन । जब स्वीकार नहीं होता, तो पालन की बात तो दूर रह जाएगी। ऐसी स्थिति में आचरण का प्रश्न ही नहीं उठता।
चौथी बात है-मन को आग्रह से मुक्त रखना। मैं यदि यह मानूं कि यह जो कहा जा रहा है, वह ठीक है तब तो उस पर चलने की बात प्राप्त हो सकती हैं, अन्यथा नहीं। जब उसकी बात को सम्यक् नहीं मान रहा हूं, उसका आचरण नहीं कर रहा हूं, फिर अहं को छोड़ने का प्रश्न ही नहीं उठता । जो मैंने मान लिया या स्वीकार कर लिया, उसे छोड़ने की बात ही नहीं आती। चारों स्थितियों में मानसिक उलझन बढ़ती है, मानसिक