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महावीर की साधना का रहस्य
का परिवर्तन निश्चित ही हो जाएगा। , क्या साधक को स्वाभिमानी नहीं होना चाहिए ?
स्वाभिमान 'अहं का ही हल्का रूप है । सामाजिक प्राणी स्वाभिमान को मूल्य देता है। उसके बिना वह अपने अस्तित्व को सुरक्षित अनुभव नहीं करता । किन्तु साधक के लिए न अहं आवश्यक है और न स्वाभिमान ही आवश्यक है । वह तो अपने स्वरूप के सिवाय कुछ भी होना नहीं चाहता । वह तो पूरा हल्का होना चाहता है । इसलिए स्वाभिमान जैसी बात ही नहीं है उसके लिए। • क्या पूजा प्राप्त होने पर अभिमान नहीं जाग उठता? क्या वह सापक के लिए खतरा नहीं है ?
मूर्खता के सिवाय किसी भी बात पर अभिमान नहीं किया जा सकता । अभिमान मूर्खता पर ही किया जा सकता है। जहां अनित्य और अशरण भावना है वहां अभिमान कैसा ? इनकी उचित अनुप्रेक्षा हो तो अहं उठता ही नहीं है ?
पूजा साधना के लिए खतरा भी है और सहायक भी है । साधक यदि यह सोचे कि जो लोग मुझे पूजा देते हैं, मैं इन्हें धोखा न दूं-यहां पूजा का भाव साधना में सहायक बन जाता है । यह दिशा का परिवर्तन है। पूजा अहं बढ़ाती है तो अहं को तोड़ता भी है। पूजा आदि आत्मज्ञ व्यक्ति के लिए सहायक है और अनात्मज्ञ के लिए खतरा ।