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महावीर की साधना का रहस्य
कहा-'म्यान से तलवार निकाल लेने पर ही कोई योद्धा नहीं बन जाता। तलवार निकालने मात्र से कोई योद्धा बन जाए तब तो दुनिया में बहुत सारे लोग योद्धा कहलाएंगे । तलवार चलाना तुम कहां जानते हो? और ऐसी तलवार ले रखी है जिसमें धार ही नहीं है ।' योद्धा के लिए इतना काफी था । वह उबल पड़ा । उसने तलवार चलाने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाया, साधक बोल पड़ा-'यह नरक का द्वार है । योद्धा शान्त हो गया । तलवार नीचे गिर गई । हाथ जोड़कर साधक को प्रणाम किया । साधक ने कहा-'यह स्वर्ग का द्वार है।' अब आप देखिये कि दो-चार मिनटों में ही नरक का द्वार भी उसके सामने आ गया और स्वर्ग का द्वार भी सामने आ गया । वह स्वर्ग की दिशा में भी प्रयाण कर गया और नरक की दिशा में भी प्रयाण कर गया। उसने नरक के दरवाजे को भी खटखटा लिया और स्वर्ग के दरवाजे को भी खटखटा लिया । यह क्या है ? आप सोचेंगे कि यह सारी मन की क्रिया है, मन का बोझ है, मन की कलुषता है । पर मैं ऐसा नहीं सोचता। जो मन दो मिनट बाद स्वर्ग का द्वार वन गया, वह मन कहीं भी नहीं ले जा सकता और ले जाने का अधिकारी भी नहीं है । किन्तु बेचारे पर दोष मढ़ देते हैं जो उसमें नहीं है । यह नरक का दर्शन और स्वर्ग का दर्शन, नरक के दरवाजे को खटखटाना और स्वर्ग के दरवाजे को खटखटाना—ये दोनों बातें हमारी वृत्तियां कर रही हैं, न कि मन कर रहा है ।
हमारी चेतना के दो स्तर होते हैं। एक होता है ज्ञान का स्तर और एक होता है वेदना (वृत्ति या संज्ञा) का स्तर । अज्ञानी आदमी वेदना के स्तर पर जीता है और ज्ञानी आदमी ज्ञान के स्तर पर जीता है। जानना ज्ञानी आदमी का काम है । क्या घटित हो रहा है, उस तत्त्व को जानना ज्ञानी का काम है । ज्ञानी दुनिया में आंख मूंदकर नहीं चलता। वह सव कुछ जानता है और जान कर चलता है। किन्तु जानता है, वेदन नहीं करता—यह है हमारी ज्ञान की स्थिति या चेतना की स्थिति । दूसरी है वेदना की स्थिति । अज्ञानी आदमी जानता कम है, या नहीं जानता, किन्तु वेदना करता है। वेदना के स्तर पर जीता है। ____ श्रीमज्जयाचार्य ने देखा, नाटक हो रहा है । पर उनके मन में कोई संवेदना नहीं हुई । नाटक होता रहा और उनका अपना काम चलता रहा । जान लिया पर वेदना के प्रवाह में वे नहीं बहे । हमारा क्रोध, हमारा अभिमान, हमारी माया, हमारा लोभ और हमारी आकांक्षा—यह प्रवाह-पाती चेतना