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महावीर की साधना का रहस्य
एक साथ सक्रिय नहीं होते ।
मन कहां है ? सम्बन्ध में चार विचारधाराएं हमारे सामने हैं१. कुछ मानते हैं कि मन समूचे शरीर में व्याप्त है। २. कुछ मानते हैं कि मन का स्थान हृदय के नीचे है।
३. कुछ लोग मानते हैं कि मन हृदय-कमल के बीच में है। हृदय-कमल की आठ पंखुड़ियां हैं, वहां मन है । कुछ योगाचार्यों का मत है कि बाएं फेफड़े में जहां हृदय है, उसके एक इन्च नीचे मन का स्थान है।
४. वर्तमान शरीरशास्त्र का अभिमत है कि मन का स्थान मस्तिष्क है । ___ मैं सोचता हूं कि ये सारी सापेक्षताएं हैं। यदि हम कहें कि मन समूचे शरीर में व्याप्त है तो यह सापेक्ष ही होगा। हमारे स्नान-संस्थान में जितने भी ग्राहक स्नायु हैं, जो बाह्य विषयों को ग्रहण करते हैं, उनका जाल समूचे शरीर में फैला हुआ है । वे शरीर के सब भागों से ग्रहण करते हैं । इस प्रकार मन का शासन सर्वत्र व्याप्त है। राजा अपनी राजधानी में बैठा है। कोई पूछे कि राजा कहां है तो कहा जा सकता है कि जहां तक राज्य की सीमा है वहां तक राजा है । वह भले ही राजधानी में हो, किन्तु उसका शासन सारे राज्य की सीमा में चलता है, तो राजा सर्वत्र व्याप्त है । ___'मन हृदय के नीचे है'—यह भी सापेक्ष है । सुषुम्ना की एक धारा हृदय को छूती हुई जाती है । उसका हृदय के साथ सम्पर्क है इसलिए हृदय को मन का केन्द्र मानना बड़े महत्त्व की बात है । वह भावपक्ष का मुख्य स्थान है।
मन का स्थान मस्तिष्क है, यह बहुत स्पष्ट है । ज्ञानतंतुओं का संचालन उसी से होता है । वह उन पर नियन्त्रण और नियमन करता है।
मन के स्वरूप को जानना इसलिए आवश्यक है कि वह हमारी साधना का मुख्य आधार है । उसी के आधार पर ध्यान करना है, उपलब्धियों तथा अनुपलब्धियों का लेखा-जोखा करना है । मन के साथ चेतना का योग न हो तो ध्यान की कोई आवश्यकता ही नहीं। फिर हम स्वयं सिद्ध बन जाते हैं। 'चेतना मन के साथ जुड़ी ही नहीं'- इसका अर्थ है कि मन सक्रिय होता ही नहीं। उस स्थिति में कोई विकल्प नहीं होता, संकल्प नहीं होता, चिन्ता नहीं होती। मन का यंत्र मृतवत् पड़ा रहता है। यह ध्यान की भूमिका है। यह शुद्ध उपयोग की भूमिका है । मन का स्वरूप चेतना की धारा से निर्मित होता है। वह अपने-आप में न कलुषित है और न निर्मल, न चंचल है और न स्थिर । जैसा उपादान होता है वैसा ही वह निर्मित हो जाता है। चेतना